खिड़की और किरण
	  
  			
							
		
					
			हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए
भागती हुई उस किरण ने देखा नहीं
बंद खिड़की को
जिससे टकरा कर
उसका खून
दीवार पर बहता हुआ
नीचे ज़मीन पर पसर गया।
उस मदहोश को कहाँ था पता
लू के मौसम में
खिड़कियाँ बंद कर दी जाती हैं।
					
		
					
			
		
		
					काव्यालय को प्राप्त: 5 Aug 2024. 
							काव्यालय पर प्रकाशित: 6 Sep 2024
				
			 
  
		
				
				        	    		    		
				    
								    	    		    		
				    
				     	इस महीने : 
				     			                			            'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा
			            
			            	कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।
हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।
जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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