छंद में लिखना - आसान तरकीब - 5
पूरा गीत पूरी कविता कैसे लिखें?
नमस्कार दोस्तो,
भाग 2, 3, और 4 के साथ यह भाग गीत लिख पाने की ओर ठोस कदम है।
इस भाग के दो हिस्से हैं। पहले 16 मात्रा की लय पर खास विषयों पर लिखने का अभ्यास, जैसे भाग ३ तीन में १२ मात्रा की लय के लिए किया था। और फिर उसमें से एक विषय को लेकर कैसे गीत लिखने की कोशिश कर सकते हैं, उसका उदाहरण।
आज हम इन तीन आम विषयों पर लिखेंगे। लय वही 16 मात्रा की तीन ताल की होगी --
धा धा धिन धा। धा धा धिन धा।
विषय हैं --
मेरा प्रयास
उदाहरण स्वरूप इन विषयों पर मैंने यह पंक्तियाँ लिखीं --
इस वक्त मन में क्या मुख्य भावना है
याद वही आते रहते हैं
हूक उठे मन में रह रह के
चलता फिरता मेरे अन्दर
यह अलगाव सदा जीवन में
मेरे काम / व्यवसाय के विषय में -
जो भी सीखा वही बाँटना
अभिव्यक्ति की तृप्ति साधना
चुप्पी साधे मन को वाणी
मिल जाए यह मैंने ठानी
जहाँ रहती हूँ उसपर
गंगा तीर हमारा घर है
शान्त नहीं अति कोलाहल है
स्वच्छ पवन औ’ हरियाली हो
यह सब एक मधुर सपना है
आपकी बारी
अब आपको इन तीन विषयों पर चार चार पंक्तियाँ लिखनी हैं। आशा है पिछले हफ़्ते आपने 16 मात्रा के लय पर लिखने का रियाज़ किया होगा।
तो पहले ताल के बोल बोलकर, ताली के साथ बार बार दोहराएँ -
धा धा धिन धा, धा धा धिन धा।
धा धा धिन धा, धा धा धिन धा।
धा धा धिन धा, धा धा धिन धा।
धा धा धिन धा, धा धा धिन धा।
अब लिखिए! और बताइयेगा अनुभव कैसा रहा
पूरा गीत या कविता कैसे लिखें?
अब गीत या पूरी कविता की ओर हम कैसे बढ़ें? इसके लिए लय पर पकड़ बनाए रखने के साथ साथ उस भावना, विचार, विषय को और आकार देना होगा।
जैसे अपने अंतिम विषय घर पर पंक्तियों को मैंने आगे बढ़ाने की कोशिश की। पहले लिखा था --
गंगा तीर हमारा घर है
शान्त नहीं अति कोलाहल है
स्वच्छ पवन औ’ हरियाली हो
यह सब एक मधुर सपना है
फिर मैंने लिखा --
मन के भीतर मेरा घर है
पर मन खोजे ठौर किधर है
ज्ञात 'नहीं कुछ अपना' फिर भी
चाहे तिनका जो अपना है
शान्त गगन हो हरी धरा हो
जिसपर टिककर पांव खड़ा हो
नहीं पराया छोटा करती
रिश्तों की कोई सीमा हो
अन्तरों, verses के पहले और बीच में कोई पंक्ति दोहराई जाए, जो स्थाई की भूमिका निभाए, मूल भावना को अभिव्यक्त करे, उसके लिए मैंने लिखा -- मैं अपना घर ढूँढ रही हूँ
पूरी रचना
तो पूरी रचना यह हुई --
मैं अपना घर ढूँढ रही हूँ
गंगा तीर हमारा घर है
शान्त नहीं अति कोलाहल है
स्वच्छ पवन औ’ हरियाली हो
यह सब एक मधुर सपना है
मैं अपना घर ढूँढ रही हूँ
मन के भीतर मेरा घर है
पर मन खोजे ठौर किधर है
ज्ञात 'नहीं कुछ अपना' फिर भी
चाहे तिनका जो अपना है
मैं अपना घर ढूँढ रही हूँ
शान्त गगन हो हरी धरा हो
जिसपर टिककर पांव खड़ा हो
नहीं पराया छोटा करती
रिश्तों की कोई सीमा हो
मैं अपना घर ढूँढ रही हूँ
प्रकाशित : 2 मार्च 2025