अप्रतिम कविताएँ

चुप सी लगी है
चुप सी लगी है।
अन्दर ज़ोर
एक आवाज़ दबी है।
वह दबी चीख
निकलेगी कब?
ज़िन्दगी आखिर
शुरू होगी कब?
कब?

खुले मन से हंसी
कब आएगी?
इस दिल में खुशी
कब खिलखिलाएगी?
बरसों इस जाल में बंधी,
प्यास अभी भी है।
अपने पथ पर चल पाऊँगी,
आस अभी भी है।
पर इंतज़ार में
दिल धीरे धीरे मरता है
धीरे धीरे पिसता है मन,
शेष क्या रहता है?

डर है, एक दिन
यह धीरज न टूट जाए
रोको न मुझे,
कहीं ज्वालामुखी फूट जाए।
वह फूटा तो
इस श्री सृजन को
कैसे बचाऊँगी?
विश्व में मात्र एक
किस्सा बन रह जाऊँगी।
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]

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'उऋण रहें'
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बन्धनों से बांधता है ऋणदाता,
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चुका नहीं पाता
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फिर-फिर अपमानजनक
ऋण उससे !

..

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अज्ञात


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..

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अज्ञात


कवि! मेरा मन पावन कर दो!

हे! रसधार
बहाने वाले,
हे! आनन्द
लुटाने वाले,
..

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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