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देश की नागरिक
आज जब चुनाव नहीं हैं,
आज फिर से चुनती हूँ --
इस देश को मैं अपने मन में
क्या गढ़ूँगी?
कौन से देश की नागरिक बनूँगी?
सवाल खुद से करती हूँ|
जिस देश में जन्म हुआ,
जिस देश की मैं बेटी हूँ,
वह द्वेष का पर्याय नहीं,
संकल्प फिर से करती हूँ|

कुछ संज्ञा विशेष में सिमटी
धर्म की परिभाषाएँ,
गत पीड़ा की फिर से उठती
धुंध की पिपासाएँ --
इनसे परे बना यह देश|
राजा प्रजा काल जो भी
कर लें, यह देश
रहेगा कायम

दुशाला ओढ़ किसी भी
संज्ञा विशेष का,
अथवा त्यज कर,
जैसे भी तू आना चाहे,
स्वागत तेरा करती हूँ,
देश ऐसा गढ़ती हूँ|
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]

काव्यालय को प्राप्त: 17 Dec 2019. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 Dec 2019

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इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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