अप्रतिम कविताएँ
देश की नागरिक
आज जब चुनाव नहीं हैं,
आज फिर से चुनती हूँ --
इस देश को मैं अपने मन में
क्या गढ़ूँगी?
कौन से देश की नागरिक बनूँगी?
सवाल खुद से करती हूँ|
जिस देश में जन्म हुआ,
जिस देश की मैं बेटी हूँ,
वह द्वेष का पर्याय नहीं,
संकल्प फिर से करती हूँ|

कुछ संज्ञा विशेष में सिमटी
धर्म की परिभाषाएँ,
गत पीड़ा की फिर से उठती
धुंध की पिपासाएँ --
इनसे परे बना यह देश|
राजा प्रजा काल जो भी
कर लें, यह देश
रहेगा कायम

दुशाला ओढ़ किसी भी
संज्ञा विशेष का,
अथवा त्यज कर,
जैसे भी तू आना चाहे,
स्वागत तेरा करती हूँ,
देश ऐसा गढ़ती हूँ|
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]
विषय:
समाज (30)

काव्यालय को प्राप्त: 17 Dec 2019. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 Dec 2019

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'एक आशीर्वाद'
दुष्यन्त कुमार


जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
..

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कहते हैं सब लोग तोंद एक रोग बड़ा है
तोंद घटाएँ सभी चलन यह खूब चला है।
पर मानो यदि बात तोंद क्यों करनी कम है
सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

औरों की क्या कहूं, मैं अपनी बात बताता
बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह
..

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गमले तक सीमित मत करना पौधे का संसार कभी।

जड़ के पाँव नहीं पसरे तो छाँव कहाँ से पाओगे?
जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

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