अप्रतिम कविताएँ
देश की नागरिक
आज जब चुनाव नहीं हैं,
आज फिर से चुनती हूँ --
इस देश को मैं अपने मन में
क्या गढ़ूँगी?
कौन से देश की नागरिक बनूँगी?
सवाल खुद से करती हूँ|
जिस देश में जन्म हुआ,
जिस देश की मैं बेटी हूँ,
वह द्वेष का पर्याय नहीं,
संकल्प फिर से करती हूँ|

कुछ संज्ञा विशेष में सिमटी
धर्म की परिभाषाएँ,
गत पीड़ा की फिर से उठती
धुंध की पिपासाएँ --
इनसे परे बना यह देश|
राजा प्रजा काल जो भी
कर लें, यह देश
रहेगा कायम

दुशाला ओढ़ किसी भी
संज्ञा विशेष का,
अथवा त्यज कर,
जैसे भी तू आना चाहे,
स्वागत तेरा करती हूँ,
देश ऐसा गढ़ती हूँ|
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]
विषय:
समाज (31)

काव्यालय को प्राप्त: 17 Dec 2019. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 Dec 2019

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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