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धीरे-धीरे
एहसासों की लड़ी है
ये ज़िन्दगी।
धीरे-धीरे आगे बढ़ती हूँ ―
एक एक एहसास को
सहेज कर,
समेट कर,
रखती हूँ।
वक्त लगता है।
कमरा बिखरा रह जाता है।
-
वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]
विषय:
धीरे-धीरे (3)
काव्यालय को प्राप्त: 22 Dec 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Dec 2022
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खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
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टहनियों पर ...
..
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प्रेमरंजन अनिमेष
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हर बार सोचता हूँ
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उसमें
..
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मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..
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इस महीने :
'खिलौने की चाबी'
नूपुर अशोक
इतनी बार भरी गई है
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..
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