अप्रतिम कविताएँ
अधूरी साधना
प्रियतम मेरे,
सब भिन्न भिन्न बुनते हैं
गुलदस्तों को,
भावनाओं से,
विचारों से।
मैं तुम्हे बुनूँ
अपनी साँसों से।
भावनायें स्थिर हो जाएँ,
विचारधारा भी,
होंठ भी मौन रहे -
और हर श्वास
नित तुम्हारा नाम कहे -
और तुम बुनते रहो।

एक घड़ी आएगी फिर
मेरी बंद पलकों के सम्मुख
तुम निराकार साकार होगे।
तुम बाँहों में अपनी,
मेरी साँसों को समेट लोगे।
फिर न होगा मिलना,
न बिछड़ना, न जन्म-मरण,
न मैं।
सिर्फ तुम मेरे प्रियतम -
अपना स्वरूप पाकर -
अनंत।
- वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]

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'उऋण रहें'
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बन्धनों से बांधता है ऋणदाता,
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..

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हे! आनन्द
लुटाने वाले,
..

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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