अप्रतिम कविताएँ
नव ऊर्जा राग
ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा भी ढाल,
ए-आए से चलता है अब युद्ध का जाल।

जी-पी-एस पे टिकी है तुम्हारी हर चाल,
सैटेलाइट से देख दुश्मन के हाल।
रेडार की नज़रें, टैक्टिकल कमांड,
हर साजिश को तोड़े तुम्हारा ब्रांड।

सिर्फ़ बॉर्डर नहीं, अब नेटवर्क का है मोर्चा,
एक क्लिक से कोलाहल की विश्व में चर्चा ।
सिग्नल जैम या मिसाइल गाइडिंग मोड,
इस युग के अग्निपुत्र, न भूले कोई कोड।

तो जवान, थाम ले बंदूक, चिप से भी हो लैस,
शक्ति ले नवविज्ञान की, दृष्टि रख विशेष।
ये भारत है, पुरातन भी, आधुनिक भी,
रणनीति में शेर, तकनीक में भीष्म भी।

भारत है ये—जहाँ मिले परंपरा और प्रगति
रणनीति सिंह की , तकनीक से है खिलती।
दुश्मन समझे इसे बस कहानी पुरानी,
पर यहाँ हर जवान में तकनीक की रवानी।

नेता के विजन ने जगाया नव ऊर्जा राग
शौर्य-ज्ञान-तकनीक से जगाया देश का भाग्य।
नीति की ज्योति से जागे उत्साह और आस
उसके नेतृत्व में सुनहरे कल का विश्वास।
- भावना सक्सैना
विषय:
देशप्रेम (12)
युद्द तकरार (7)
गणित विज्ञान (9)

काव्यालय को प्राप्त: 25 May 2025. काव्यालय पर प्रकाशित: 18 Jul 2025

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
भावना सक्सैना
की काव्यालय पर अन्य रचनाएँ

 ज़िंदगी की नोटबुक
 नव ऊर्जा राग
 लुप्तप्राय
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website