अप्रतिम कविताएँ
छाता
जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें कोई एक ही आता है

इसलिए
सोचता हूँ
मैं लूँगा
तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जायें

और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन

बराबर लगता है
छाते
रिश्ते नाते हैं
बरसात में काम आते हैं
और अकसर
छूट जाते हैं !
- प्रेमरंजन अनिमेष
विषय:
विस्तार (13)
समाज (31)

काव्यालय को प्राप्त: 29 Apr 2025. काव्यालय पर प्रकाशित: 6 Jun 2025

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कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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इतनी बार भरी गई है
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..

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