एक ईमेल की कहानी

वाणी मुरारका

एक समय की बात है, एक संवेदनशील, स्नेहिल पुरुष ने एक प्यारी, बुद्धु, डरी हुई लड़की को एक ईमेल भेजा।

वह लड़की किसी बात से विचलित थी, और ऐसी मन:स्थिति में उसने कह डाला, “अगर ऐसा हुआ, मेरे मन में अपने प्रति सम्मान नहीं बचेगा।“ वह "ऐसा हुआ" चाहे कुछ भी हो, वह प्रासंगिक नहीं।

वह लड़की विचलित होने में व्यस्त थी, तो उसके बीच में उस पुरुष ने कुछ नहीं कहा। अगले दिन उन्होंने एक ईमेल भेजा। उसमें जो लिखा था, उससे अच्छी बात अभी तक कभी किसी ने व्यक्ति ने मुझे नहीं कही है। हाँ, वह प्यारी, बुद्धु, और अब, कुछ कम डरी हुई लड़की मैं हूँ।

आम तौर पर मैं इसको या उसको सर्वश्रेष्ठ घोषित करना पसन्द नहीं करती हूँ। इतना कुछ है हमारे इर्द गिर्द जो कितने प्रकार से श्रेष्ठ है। मगर सच में मुझे ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी के अब तक के सालों में, यह सबसे अच्छी बात है जो किसी दोस्त, रिश्तेदार, मनुष्य ने कभी मुझे कही है।

मेरे संघर्ष के समय में इन शब्दों ने मुझे शक्ति दी है -- उस वक्त भी जब मैं ऐसी परिस्थिति में थी जो मेरे प्रियजनों को समझ में नहीं आ रहा था, मुझे समझ में नहीं आ रहा था, इनको, इन संवेदनशील स्नेहिल सज्जन को भी समझ में नहीं आ रहा था। उस वक्त इन शब्दों ने मुझे चलते रहने की शक्ति दी, चाहे वह निरर्थक और दिशाहीन ही क्यूँ न प्रतीत हो। काली सीलन-भरी डिप्रेशन के बीच इन शब्दों ने मुझे स्वयं पर विश्वास रखने की शक्ति दी, अपने निर्णयों पर विश्वास रखने की शक्ति दी।

उन्होंने यह लिखा था (ईमेल अंग्रेजी में था, यहाँ अनुवाद प्रस्तुत है) –


कल की हमारी बातों में मैंने यह कहा नहीं। तुम उसी क्षण कुछ उत्तर देने की कोशिश करतीं। मैं चाहता था कि तुम इसपर बाद में आराम से गौर करो।

तुमने कहा था कि अगर कुछ खास घटनाएँ हुईं, तुम्हारे मन में अपने प्रति सम्मान नहीं बचेगा। बुरे से बुरे परिस्थिति में भी, कभी भी अपने प्रति सम्मान मत खोना – कभी भी नहीं। मेरी बात कहूँ, तो ज़िन्दगी और ईश्वर के प्रति मेरी अडिग आस्था के चलते, मेरा स्वयं के प्रति सम्मान अडिग है। वह किसी भी परिस्थिति से निर्धारित नहीं हो सकता। मैं हार सकता हूँ, बेवकूफ़ हो सकता हूँ, अपमानित हो सकता हूँ, मगर मैं ईश्वर की एक कृति हूँ। इस विशाल ब्रह्माण्ड में मेरी कोई तो भूमिका है – तो मुझे वही होना होगा जो मैं हूँ। वैसे ही, ज़िन्दगी के प्रति मेरा आचरण यह है कि मुझे चाहने और माँगने का अधिकार है, मगर ज़िन्दगी मुझे जो दे, मैं उसे कृतज्ञता सहित स्वीकारता हूँ। क्योंकि मैं अपने को कविता में ही सबसे अच्छा अभिव्यक्त करता हूँ, इस आस्था पर मैंने कुछ वर्ष पूर्व एक कविता लिखी थी – वह संलग्न है।

~ विनोद तिवारी


तो दोस्तो, विनोद जी की यह बात आपको भेंट। मन हो तो इसे अपना बनाएँ। और उन्होंने ईमेल में जो कविता भेजी थी, नीचे प्रस्तुत है। वर्षों पहले इस ईमेल में ही मैंने पहली बार यह कविता पढ़ी थी।

जीवन दीप

मेरा एक दीप जलता है।
अंधियारों में प्रखर प्रज्ज्वलित,
तूफानों में अचल, अविचलित,
यह दीपक अविजित, अपराजित।
मेरे मन का ज्योतिपुंज
जो जग को ज्योतिर्मय करता है।
मेरा एक दीप जलता है।

सूर्य किरण जल की बून्दों से
छन कर इन्द्रधनुष बन जाती,
वही किरण धरती पर कितने
रंग बिरंगे फूल खिलाती।
ये कितनी विभिन्न घटनायें,
पर दोनों में निहित
प्रकृति का नियम एक है,
जो अटूट है।
इस पर अडिग आस्था मुझको
जो विज्ञान मुझे जीवन में
पग पग पर प्रेरित करता है।
मेरा एक दीप जलता है।

यह विशाल ब्रह्मांड
यहाँ मैं लघु हूँ
लेकिन हीन नहीं हूँ।
मैं पदार्थ हूँ
ऊर्जा का भौतिकीकरण हूँ।
नश्वर हूँ,
पर क्षीण नहीं हूँ।
मैं हूँ अपना अहम्
शक्ति का अमिट स्रोत, जो
न्यूटन के सिद्धान्त सरीखा
परम सत्य है,
सुन्दर है, शिव है शाश्वत है।
मेरा यह विश्वास निरन्तर
मेरे मानस में पलता है।
मेरा एक दीप जलता है।

~ विनोद तिवारी

विनोद तिवारी की कविताओं का संकलन, वाणी मुरारका की चित्रकारी सहित
समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न


काव्यालय पर प्रकाशित: 30 अक्टूबर 2020


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..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

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