अप्रतिम कविताएँ
विस्मृति की लहरें
विस्मृति की लहरें
ऊँची उठ रही हैं
इति की यह तटिनी
बाढ़ पर है अब

ढह रही हैं मन से घटनाएँ
छोटी-बड़ी यादें और चेहरे
जिनका मैं सब-कुछ जानता था
जिन्हें मैं लगभग पर्याय मानता था
अपने होने का

सब किनारे के वृक्षों की तरह
गिर-गिरकर बहते जा रहे हैं
मेरी इति की धार में
दूर-दूर से व्यक्ति-वृक्ष
आ रहे हैं और
मैं उन्हें हल्का-हल्का
पहचान रहा हूँ

जान रहा हूँ बीच-बीच में
कि इति की तटिनी
बाढ़ पर है
ऊँची उठ रही हैं
विस्मृति की लहरें !
- भवानीप्रसाद मिश्र
विस्मृति : भूल जाना; इति : समाप्ति, पूर्णता; तटिनी : नदी, सरिता

साहित्य अकादेमी पुरस्कृत संकलन "बुनी हुई रस्सी" से

एमज़ोन पर उपलब्ध

काव्यालय पर प्रकाशित: 7 Jun 2019

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काव्यालय के आँकड़े

वार्षिक रिपोर्ट
अप्रैल 2023 – मार्च 2024
इस महीने :
'या देवी...'
उपमा ऋचा


1
सृष्टि की अतल आंखों में
फिर उतरा है शक्ति का अनंत राग
धूम्र गंध के आवक स्वप्न रचती
फिर लौट आई है देवी
रंग और ध्वनि का निरंजन नाद बनकर
लेकिन अभी टूटी नहीं है धरती की नींद
इसलिए जागेगी देवी अहोरात्र...

2
पूरब में शुरू होते ही
दिन का अनुष्ठान
जाग उठी हैं सैकड़ों देवियाँ
एक-साथ
ये देवियाँ जानती हैं कि
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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