विस्मृति की लहरें
विस्मृति की लहरें
ऊँची उठ रही हैं
इति की यह तटिनी
बाढ़ पर है अब
ढह रही हैं मन से घटनाएँ
छोटी-बड़ी यादें और चेहरे
जिनका मैं सब-कुछ जानता था
जिन्हें मैं लगभग पर्याय मानता था
अपने होने का
सब किनारे के वृक्षों की तरह
गिर-गिरकर बहते जा रहे हैं
मेरी इति की धार में
दूर-दूर से व्यक्ति-वृक्ष
आ रहे हैं और
मैं उन्हें हल्का-हल्का
पहचान रहा हूँ
जान रहा हूँ बीच-बीच में
कि इति की तटिनी
बाढ़ पर है
ऊँची उठ रही हैं
विस्मृति की लहरें !
काव्यालय पर प्रकाशित: 7 Jun 2019