अप्रतिम कविताएँ
आराम से भाई जिन्दगी
आराम से भाई जिन्दगी
जरा आराम से

तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाश्त नहीं होती अब
इतना कसकर किया गया आलिंगन
जरा ज़्यादा है जर्जर इस शरीर को

आराम से भाई जिन्दगी
जरा आराम से
तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं
ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या
महल-अटारियों पर भी

न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना
बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिलकुल ही पास बैठकर

और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे
जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर

जो हो जाएंगे राख
छूकर सबेरे की किरन

सुबह हुए जाना है मुझे
आराम से भाई जिन्दगी
जरा आराम से !
- भवानीप्रसाद मिश्र
साहित्य अकादेमी पुरस्कृत संकलन "बुनी हुई रस्सी" से

एमज़ोन पर उपलब्ध
विषय:
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काव्यालय पर प्रकाशित: 24 May 2019

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धमाका फिर गूंजता है
पर बमों और बंदूकों का नहीं
पटाखों के साथ-साथ
गूंजती है किलकारियाँ भी।
सहमे से मुरझाए होठों पर
..

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