अप्रतिम कविताएँ
पावन कर दो
आ पवस्व मन्दितम पवित्रं धारया कवे ।
अर्कस्य योनिमासदम् ।।
(ऋ. 9/50/4)

कवि! मेरा मन पावन कर दो!

हे! रसधार
बहाने वाले,
हे! आनन्द
लुटाने वाले,

ज्योतिपुंज मैं भी हो जाऊँ
ऐसा अपना तेज प्रखर दो!
- अज्ञात
- अनुवाद : अमृत खरे
पुस्तक "मयूरपंख: गीत संग्रह (अमृत खरे)" और 'श्रुतिछंदा' से
विषय:
विस्तार (13)
कवि (6)

***
अज्ञात
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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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इस महीने :
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शान्ति मेहरोत्रा


कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..

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इतनी बार भरी गई है
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कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..

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