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पावन कर दो
आ पवस्व मन्दितम पवित्रं धारया कवे ।
अर्कस्य योनिमासदम् ।।
(ऋ. 9/50/4)
कवि! मेरा मन पावन कर दो!
हे! रसधार
बहाने वाले,
हे! आनन्द
लुटाने वाले,
ज्योतिपुंज मैं भी हो जाऊँ
ऐसा अपना तेज प्रखर दो!
- अज्ञात
- अनुवाद :
अमृत खरे
पुस्तक
"मयूरपंख: गीत संग्रह (अमृत खरे)"
और
'श्रुतिछंदा'
से
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अनिता निहलानी
कोई कथा अनकही न रहे
व्यथा कोई अनसुनी न रहे,
जिसने कहना-सुनना चाहा
वाणी उसकी मुखर हो रहे!
एक प्रश्न जो सोया भीतर
एक जश्न भी खोया भीतर,
जिसने उसे जगाना चाहा
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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