अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि।
इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ।।
(अथर्व 6/117/1)
बन्धनों से बांधता है ऋणदाता,
यम है वह !
चुका नहीं पाता
पर लेता हूँ ऋण उससे,
फिर-फिर अपमानजनक
ऋण उससे !
उस बलशाली के
साथ कहाँ चल पाता,
चेष्टा ही कर पाता।
उऋण करो उससे प्रभु !
बन्धनों को काटना
बस तुमको ही आता प्रभु !
इहैव सन्त प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत्।
अपमित्य धान्यम् यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ।।
(अथर्व 6/117/2)
रहते इस तन में ही
चुक जाये सारा ऋण !
अपने जीवित रहते,
उसके जीवित रहते,
नियम से चुका दें ऋण।
जो उधार खाया है,
उससे उऋण हो प्रभु !
अनृणा आस्मिन्ननृणः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम ।
ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान पथो अनृणा आ क्षियेम ।
(अथर्व 6/117/3)
बचपन में उऋण रहें,
यौवन में उऋण रहें
वृद्धावस्था में भी ।
उऋण हुए घूमें हम
निर्भय हो जहाँ-तहाँ,
लोक-लोक जायें हम
बैठ दिव्य यानों में !
काव्यालय को प्राप्त: 25 Sep 2023.
काव्यालय पर प्रकाशित: 1 Dec 2023