अप्रतिम कविताएँ
उऋण रहें
अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि।
इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ।।
(अथर्व 6/117/1)
बन्धनों से बांधता है ऋणदाता,
यम है वह !

चुका नहीं पाता
पर लेता हूँ ऋण उससे,
फिर-फिर अपमानजनक
ऋण उससे !

उस बलशाली के
साथ कहाँ चल पाता,
चेष्टा ही कर पाता।

उऋण करो उससे प्रभु !
बन्धनों को काटना
बस तुमको ही आता प्रभु !
इहैव सन्त प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत्।
अपमित्य धान्यम् यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ।।
(अथर्व 6/117/2)
रहते इस तन में ही
चुक जाये सारा ऋण !
अपने जीवित रहते,
उसके जीवित रहते,
नियम से चुका दें ऋण।
जो उधार खाया है,
उससे उऋण हो प्रभु !
अनृणा आस्मिन्ननृणः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम ।
ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान पथो अनृणा आ क्षियेम ।
(अथर्व 6/117/3)
बचपन में उऋण रहें,
यौवन में उऋण रहें
वृद्धावस्था में भी ।

उऋण हुए घूमें हम
निर्भय हो जहाँ-तहाँ,
लोक-लोक जायें हम
बैठ दिव्य यानों में !
- अज्ञात
- अनुवाद : अमृत खरे
पुस्तक 'श्रुतिछंदा' से
विषय:
समाज (31)

काव्यालय को प्राप्त: 25 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 1 Dec 2023

***
अज्ञात
की काव्यालय पर अन्य रचनाएँ

 अविद्या और विद्या
 उऋण रहें
 कौन
 त्र्यम्बक प्रभु को भजें
 नया वर्ष
 पावन कर दो
 मंगलम्
इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website