अप्रतिम कविताएँ
त्र्यम्बक प्रभु को भजें
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
ऊर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्।
ऊर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।।
(यजु. 3/60)
त्र्यम्बक प्रभु को भजे निरन्तर !
जीवन में सुगन्ध भरते प्रभु,
करते पुष्ट देह, अभ्यन्तर !

लता-बन्ध से टूटे, छूटे खरबूजे से
जब हम टूटें, जब हम छूटें मृत्यु-बन्ध से,
पृथक न हों प्रभु के अमृत से !

त्र्यम्बक प्रभु को जपें निरन्तर !
जीवन में सुगन्ध भरते प्रभु
स्वजनों का संरक्षण देकर !

लता-बन्ध से टूटे, छूटे खरबूजे से
जब हम टूटें, जब हम छूटें देह-बन्ध से,
पृथक न हों प्रभु के अमृत से !
- अज्ञात
- अनुवाद : अमृत खरे
त्र्यम्बकं -- त्रिलोचन, शिव; अभ्यन्तर -- निकटतम;
पुस्तक 'श्रुतिछंदा' से

काव्यालय को प्राप्त: 25 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 Nov 2023

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घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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