अप्रतिम कविताएँ
त्र्यम्बक प्रभु को भजें
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
ऊर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्।
ऊर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।।
(यजु. 3/60)
त्र्यम्बक प्रभु को भजे निरन्तर !
जीवन में सुगन्ध भरते प्रभु,
करते पुष्ट देह, अभ्यन्तर !

लता-बन्ध से टूटे, छूटे खरबूजे से
जब हम टूटें, जब हम छूटें मृत्यु-बन्ध से,
पृथक न हों प्रभु के अमृत से !

त्र्यम्बक प्रभु को जपें निरन्तर !
जीवन में सुगन्ध भरते प्रभु
स्वजनों का संरक्षण देकर !

लता-बन्ध से टूटे, छूटे खरबूजे से
जब हम टूटें, जब हम छूटें देह-बन्ध से,
पृथक न हों प्रभु के अमृत से !
- अज्ञात
- अनुवाद : अमृत खरे
त्र्यम्बकं -- त्रिलोचन, शिव; अभ्यन्तर -- निकटतम;
पुस्तक 'श्रुतिछंदा' से

काव्यालय को प्राप्त: 25 Sep 2023. काव्यालय पर प्रकाशित: 17 Nov 2023

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अज्ञात
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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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