मित्र सहेजो
हम जंगल से धूप-छाँव लेकर आये हैं
पगडण्डी पर वे बैठी थीं पाँव पसारे
पेड़ों ने थे फगुनाहट के बोल उचारे
उन्हें याद थे
ऋषियों ने जो मंत्र सूर्यकुल के गाये हैं
वनकन्या की हँसी - नेह उसके हिरदय का
उन्हें सँजोओ - छँट जायेगा धुंध समय का
इन्हें न टेरो
घिरे शहर में धुएँ-धुंध के जो साये हैं
आधी रातों के निर्णय हैं सभागार में
टँगी हुईं सूरज की छवियाँ राजद्वार में
उन्हें दिशा दो
जो शाहों के संवादों से भरमाये है
काव्यालय को प्राप्त: 16 Jan 2018.
काव्यालय पर प्रकाशित: 11 Jan 2019