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काश हम पगडंडियाँ होते
यों न होते
काश !
हम पगडंडियाँ होते
इधर जंगल - उधर जंगल
बीच में हम साँस लेते
नदी जब होती अकेली
उसे भी हम साथ देते
कभी उसकी
देह छूते
कभी अपने पाँव धोते
कोई परबतिया
इधर से जब गुज़रती
घुघरुओं की झनक
भीतर तक उतरती
हम
उसी झंकार को
आदिम गुफाओं में सँजोते
और-भी पगडंडियों से
उमग कर हम गले मिलते
तितलियों के संग उड़ते
कोंपलों के संग खिलते
देखते हम
कहाँ जाती है गिलहरी
कहाँ बसते रात तोते
-
कुमार रवीन्द्र
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वाणी उसकी मुखर हो रहे!
एक प्रश्न जो सोया भीतर
एक जश्न भी खोया भीतर,
जिसने उसे जगाना चाहा
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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