अप्रतिम कविताएँ पाने
हर मकान बूढ़ा होता
साधो, सच है
जैसे मानुष
धीरे-धीरे हर मकान भी बूढ़ा होता

देह घरों की थक जाती है
बस जाता भीतर अँधियारा
उसके हिरदय नेह-सिंधु जो
वह भी हो जाता है खारा

घर में
जो देवा बसता है
घर को मथ कर ज़हर बिलोता

थकी-बुढ़ाई हो जाती हैं
चौखट-दीवारें भी घर की
साँसें जो मधुमास हुईं थीं
बाट जोहती हैं पतझर की

किसी अँधेरे
कोने में छिप कर
घर का पुरखा है रोता

कल्पवृक्ष जो था आँगन में
उस पर अमरबेल चढ़ जाती
बीते हुए समय का लेखा
लिखती बुझे दिये की बाती

कालपुरुष तब
ढली धूप के बीज
खंडहर-घर में बोता
- कुमार रवीन्द्र

काव्यालय को प्राप्त: 29 Mar 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 13 May 2022

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 हर मकान बूढ़ा होता
इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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