अप्रतिम कविताएँ
बक्सों में यादें
बक्सों में बन्द हैं यादें
       हर कपड़ा एक याद है
       जिसे तुम्हारे हाथों ने तह किया था
धोबी ने धोते समय इन को रगड़ा था
       पीटा था
मैल कट गया पर ये न कटीं
यह और अन्दर चली गयीं
हम ने निर्मम होकर इन्हें उतार दिया
       इन्होंने कुछ नहीं कहा
पर हर बार
       ये हमारा कुछ अंश ले गयीं
             जिसे हम जान न सके
त्वचा से इन का जो सम्बन्ध है वह रक्त तक है
       रक्त का सारा उबाल इन्होंने सहा है
इन्हें खोल कर देखो
       इन में हमारे खून की खुशबू ज़रूर होगी
अभी ये मौन है
       पर इन की एक-एक परत में जो मन छिपा है
             वह हमारे जाने के बाद बोलेगा
यादें आदमी के बीत जाने के बाद ही बोलती हैं
बक्सों में बन्द रहने दो इन्हें
       जब पूरी फुरसत हो तब देखना
इन का वार्तालाप बड़ा ईर्ष्यालू है
       कुछ और नहीं करने देगा।
- कुमार रवीन्द्र
Ref: Naya Prateek, June,1976
विषय:
बीता समय (17)

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'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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