अप्रतिम कविताएँ
बक्सों में यादें
बक्सों में बन्द हैं यादें
       हर कपड़ा एक याद है
       जिसे तुम्हारे हाथों ने तह किया था
धोबी ने धोते समय इन को रगड़ा था
       पीटा था
मैल कट गया पर ये न कटीं
यह और अन्दर चली गयीं
हम ने निर्मम होकर इन्हें उतार दिया
       इन्होंने कुछ नहीं कहा
पर हर बार
       ये हमारा कुछ अंश ले गयीं
             जिसे हम जान न सके
त्वचा से इन का जो सम्बन्ध है वह रक्त तक है
       रक्त का सारा उबाल इन्होंने सहा है
इन्हें खोल कर देखो
       इन में हमारे खून की खुशबू ज़रूर होगी
अभी ये मौन है
       पर इन की एक-एक परत में जो मन छिपा है
             वह हमारे जाने के बाद बोलेगा
यादें आदमी के बीत जाने के बाद ही बोलती हैं
बक्सों में बन्द रहने दो इन्हें
       जब पूरी फुरसत हो तब देखना
इन का वार्तालाप बड़ा ईर्ष्यालू है
       कुछ और नहीं करने देगा।
- कुमार रवीन्द्र
Ref: Naya Prateek, June,1976

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अज्ञात


कवि! मेरा मन पावन कर दो!

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हे! आनन्द
लुटाने वाले,
..

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

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