हिन्दी नवगीत के 'अवांगार्ड' कवि
डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया

कुमार रवीन्द्र


शिवबहादुर सिंह भदौरिया

कुमार रवीन्द्र


ईस्वी सन १९५४ - वर्ष अंतिम साँसें ले रहा था | लखनऊ विश्वविद्यालय के बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिये मुझे कुछ ही समय हुआ था | हिन्दी साहित्य भी मेरा एक ऐच्छिक विषय था| हमारे हिन्दी के आचार्य श्री बृजकिशोर मिश्र जी ने एक दिन समकालीन गीतकाव्य के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में उन्हीं दिनों हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका 'धर्मयुग' में आये एक गीत की विशेष चर्चा करते हुए उसे पढ़ने के लिए कहा | मैं प्रसाद जी की कविताई के सम्मोहन में था उन दिनों | उसी दिन विश्वविद्यालय की टैगोर लायब्रेरी में जाकर मैंने 'धर्मयुग' का वह अंक खोजकर उस गीत को पढ़ा | गीत का शीर्षक था 'पुरवा जो डोल गयी' और उसके कवि थे शिवबहादुर सिंह भदौरिया| मेरे लिए वह नाम भी नया था और गीत का वह स्वरूप भी| गीत का पहला पद, जो मन में रम गया, इस प्रकार था -

पुरवा जो डोल गई
घटा-घटा आँगन में जूड़े से खोल गई
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग बधइया फिर बोल गई

गीत की सहज लोक-कहन मेरे विशुद्ध नागरी मन के लिए एकदम अनूठी थी और वह मन के किसी कोने में संचित हो गयी| फिर तो मैं 'धर्मयुग', साप्ताहिक हिंदुस्तान' आदि पत्रिकाओं में भदौरिया जी के गीतों को विशेष ध्यान से पढ़ने लगा | तो यह था मेरा पहला परिचय श्रद्धेय अग्रज शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी के कवि से | आज जब मैं इस गीत को पढ़ता हूँ तो समझ में आता है कि इस गीत में प्रकृति की संवेदना, जीवन का सहज रोमांस और हमारी सांस्कृतिक चेतना एक-साथ रूपायित हो आई हैं | इसकी ताज़ी-टटकी आंचलिक कहन इसे हमारे लोक-जीवन से घनिष्ट रूप से जोड़ती है | इस दृष्टि से यह एक मुकम्मिल नवगीत है |

पिछली शताब्दी के स्वतंत्रता-प्राप्ति के तुरन्त बाद का वह कालखंड मौलिक भारतीय अस्मिता की तलाश और उसके अनुकूल कथ्य एवं कहन में एक नयी भंगिमा की खोज का था| हाँ, एक नये उत्साह-उल्लास एवं आत्म-विश्वास का भी| उन्हीं दिनों अज्ञेय ने युग संबंधों के बदलने की बात उठाते हुए कविता के स्वरूप के बदलने की बात भी कही और कविता के छंदमुक्त स्वरूप को ही सहज-स्वाभाविक युगानुरूप होने की बात की| किन्तु वे सम्भवतः यह नहीं समझ पाये कि गीत भी इसी दौरान अपनी भंगिमा को बदलने के लिए सचेष्ट हो रहा था| १९५४ के अंतिम दिनों में आया भाई शिवबहादुर सिंह का यह गीत भी उसी इच्छा से उपजा था और इस दृष्टि से एकदम नये प्रकार का था| हालाँकि 'नवगीत' संज्ञा का स्वीकृत चलन तब तक नहीं हो पाया था, किन्तु उन दिनों कई गीतकार गीत की एक नयी कहन-मुद्रा की तलाश में थे| उनमें एक नाम भाई शिवबहादुर सिंह का भी था| इस नज़रिये से उन्हें 'अवांगार्ड' या 'पायोनियर' गीतकवि माना जाना चाहिए|

एम.ए. में अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने से कुछ समय के लिए मेरी समग्र रुझान अंग्रेजी कविता की ओर अधिक हो गयी - हाँ, छायावादी कवियों, विशेष रूप से प्रसाद, पन्त एवं निराला की रचनाओं से मेरा सम्मोहन बना रहां | कुछ हद तक नई कविता की ओर भी मेरी रुझान बनी | कवि सम्मेलन में गीतों को सुनता तो रहा, किन्तु उस उम्र में बौद्धिकता का मन में अधिक आग्रह होने के कारण गीतों के प्रति मेरी रुझान अधिक नहीं हो पायी | वह समय मेरे लिए जीवन-संघर्ष का भी रहा | साथ ही कविता के बचपन से पड़े बीजों के अंकुरित होने का भी | उन्हीं दिनों महाभारत के ययाति-देवयानी-शर्मिष्ठा प्रसंग पर मैंने एक खंडकाव्य रच डाला, जो अद्यतन अप्रकाशित है | अंततः मुझे लखनऊ का अपना पितृ-क्षेत्र छोड़कर सुदूर पंजाब के जालन्धर शहर आजीविका हेतु जाना पड़ा | लगभग आठ वर्षों तक वहाँ रहने का समय मेरे कवि के लिए लगभग अनुर्वर ही रहा | ईस्वी सन १९७० में नवनिर्मित हरियाणा प्रदेश की ऐतिहासिक नगरी हिसार यानी शहर-ए-फिरोज़ा में स्थानान्तरण होने के बाद वहाँ के कविता-सन्दर्भ के संसर्ग में आने के बाद एक बार फिर गीत-प्रसंग से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ और धीरे-धीरे मैं नये किसिम के गीत-विमर्श के केंद्र-बिन्दुओं से परिचित होने लगा | जिन गीतकवियों की रचनाएँ मेरा सन्दर्भ बनीं, उनमे एक प्रमुख नाम शिवबहादुर भदौरिया जी का भी था |

और फिर आया श्रद्धेय डॉ. शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित त्रिखंडीय 'नवगीत दशक' एवं 'नवगीत अर्द्धशती' का कालखंड, जिसने नवगीत के विकास को एक नई गति दी | पिछली सदी के अस्सी के दशक में प्रकाशित इन दोनों ऐतिहासिक समवेत संकलनों में मुझे भाई शिवबहादुर जी का सहयात्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उनके माध्यम से उनके नवगीतों से अधिक घनिष्ठ परिचय का सुयोग भी | 'नवगीत दशक', खंड-१ में उनकी चार ऐसी रचनाएँ भी थीं, जिन्हें हिंदी नवगीत की उपलब्धि माना जाना चाहिए | वे गीत थे 'जेठ की दुपहरी', 'पानी के आसार', 'फागुन' और 'नदी का बहना मुझमें हो' | ये सभी रचनाएँ बहु-पठित रही हैं और इनके माध्यम से नवगीत की एकदम ताज़ी-टटकी विशिष्ट कहन की बानगी मिलती है | देखें इन चारों गीतों के चुने हुए अंश -

जेठ दुपहरी
हवा न ढुलके
गीत, अगीत हुए पिड़कुल के
ऊसर, ठुंठइल खेत बाँचते
थके हिरन के पाँव खोजते -
गहबर
छापक पेड़ छिउल के
प्यासे राही काली छूंछे
सांसें लोटा-डोर न पूछें
भइया
कौन जाति किस कुल के
पनही लगे पूजने कोहबर
पूरी देह हँसे गुलमोहर
छपती दुल्हन
चली खुल-खुल के

(जेठ की दुपहरी)
पूरब दिशा
कन्त कजरायी
फिर आसार दिखे -
पानी के
पूरा जिस्म तपन का टूटा
झुर-झुर-झुर ढुरकी पुरवैया
उपजी सोंधी गंध धूल में -
पंख फुला लोटी गौरैया
सूखे ताल
दरारों झाँकें
लम्बे हाथ देखे दानी के

(पानी के आसार)
आमों के शीश -
मौर बाँधने लगा फागुन
...
खेतों से -
फिर फैलीं वासन्ती बाँहें
गोपियाँ सुगंधों की
रोक रहीं राहें
देखो भ्रमरावलियाँ -
कौन-सी
बजायें धुन
बाँसों वाली छाया
देहरी बुहार गयी
मुट्ठीभर धूल, हवा
कपड़ों पर मार गयी
मौसम में -
अपना घर भूलने लगे पाहुन

(फागुन)
मेरी कोशिश है कि-
नदी का बहना मुझमें हो।
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में,
मेरा बदन काटकर नहरें-
ले जाएँ पानी ऊपर में;
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमें हो।
तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों,
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें-
स्वर के विविध वितान तने हों;
मीड़-मूर्च्छनाओं का-
उठना-गिरना मुझमें हो।

(नदी का बहना मुझमें हो)
पूरी कविता यहाँ पढ़ें

अंतिम गीत को उनकी सहज सीधी मिठबोली में सुनने का सौभाग्य भी मुझे मिला उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आगरा में १५-१६ अप्रैल ईस्वी सन २००४ में संयोजित दो दिवसीय 'नवगीत कार्यशाला' के अंतिम सत्र में | इसकी भाव-भंगिमा जितनी अनूठी है, उतनी ही अलग किसिम की है इसकी बिम्ब-संयोजना | इस आस्तिक भावबोध की आज के जटिल जीवन-सन्दर्भ में, मेरी राय में, पुनः-पुनः खोज करने की बहुत आवश्यकता है | इस आस्तिकता को जीवन्त रखने के लिए कवि अपनी पुरा-स्मृतियों से निरन्तर अपना जुड़ाव बनाये रखता है| निम्न गीत-अंश में उन स्मृतियों के बड़े ही सम्मोहक बिम्ब, जिनमें आम जीवन के सहज मधुर संसर्गों की आख्या कही गयी है, प्रस्तुत हुए हैं -

सत्तर सीढ़ी
उमर चढ़ गयी
बचपन नहीं भुलाये भूला

झुकी कमर पर मुझे बिठाना
बाबा का घोड़ा बन जाना
अजिया का आशीष, पिता का
गंडे ताबीजें पहनाना
अम्मा के हाथों
माथे का
अनखन नहीं भुलाये भूला

कागज़ की नावें तैराना
जल उछालना, नदी नहाना
माटी की दीवारें रचकर
जग से न्यारे भवन बनाना
सरकंडों
सिलकौलों वाला
छाजन नहीं भुलाये भूला

नवगीत फ़िलवक्त की चिंताओं और सरोकारों से रू-ब-रू होता रहा है| भाई शिवबहादुर जी के कई गीतों में आज के तमाम अनर्गल संदर्भों का आलेखन-आकलन हुआ है| तथाकथित प्रजातंत्र की जो नौटंकी इस कालखंड में खेली जा रही है, उसका संकेत देती उनकी ये गीत-पंक्तियाँ कितनी सटीक बन पड़ी हैं, ज़रा देखिये तो -

वही मछेरे
जाल वही है
वही मछलियाँ ताल वही हैं
....
आर्तजनों के घर तक जिनके
पाँवों का दूभर चलना है
जीभ करे एलान उन्हीं की
दलित जनों का दुख हरना है
सिंहासन तक
जो भी पहुँचे
कंधे पर बैताल वही है

मुँह में ज़हर साँप रखता है
उस पर ज़हर नहीं चढ़ता है
सबको है मालूम कि विषधर
जिसको काटे वह मरता है
राजनीति औ'
मायापति की
माया का भी हाल वही है

इस उद्धरण के दूसरे पद में शासकीय और आर्थिक तंत्रों की प्रपंची गतिविधियों पर जो टिप्पणी हुई है, वह किसी लम्बे-चौड़े आलेख से अधिक प्रभावी है, इसमें कोई संदेह नहीं है |

वर्तमान सभ्यता की एक प्रमुख विसंगति है सदियों-सदियों में विकसित-स्थापित मानुषी संज्ञानों और मर्यादाओं के टूटने से उत्पन्न अनास्थाओं और अनाचारों की | आज सभी ओर एक आपाधापी का माहौल है, जिसमें मानुषी जीवन-मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है| भदौरिया जी के निम्न गीत-अंश में आज के इस मूल्य एवं मर्यादा विपर्यय का बड़ा ही सटीक आकलन हुआ है -

अब किसको
किससे मापेंगे
तोड़ चुके पैमाने लोग
नाक़ाबिल
पैताने के भी
बैठे हैं सिरहाने लोग
...
महलों से लेकर छप्पर की
उड़ा रहे बातें बेपर की
जिनका योगदान चर्चित है
नक़बजनी में मेरे घर की
सबसे पहले
काल-कर्म-गति
वे आये समझाने लोग
...
धूल चढ़े दस्तावेजों में
धब्बे ढँकते रंगरेजों में
अपना देश कहाँ खोजें हम
ख़ुदगर्ज़ी के चंगेजों में
अवमूल्यन के
इस मेले में
शामिल नये पुराने लोग

इसी अवमूल्यन का अंग है हमारी युगों-युगों से चली आयी और एक लम्बे कालान्तर द्वारा जाँची-परखी-समझी-स्थापित सामाजिक संरचना के चरमरा जाने और लगभग विनष्ट हो जाने की स्थिति| उसका अंकन नवगीत में इधर के वर्षों में बखूबी और बड़ी शिद्दत से हुआ है| ग्राम्य-परिवेश, जो कभी मानुषी आस्था और एक सादे सात्विक जीवन का प्रतीक हुआ करता था और जिसका गायन राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'अहा. ग्राम्य जीवन भी क्या है' जैसी पंक्तियों में बड़े ही मोहक स्वरूप में किया है, आज टूटने की कगार पर है और इस कारण उसमें पिछले पचासेक वर्षों में जो अनर्थकारी परिवर्तन आये हैं, उनका आकलन भी आज के नवगीत में काफ़ी शिद्दत से हुआ है| शिवबहादुर जी ने उस बदलाव को इस प्रकार इंगित किया है -

पुरखा पथ से
पहिये रथ से
मोड़ रहा है गाँव

पूरे घर में
ईटें-पत्थर
धीरे-धीरे
छानी-छप्पर
छोड़ रहा है गाँव

ढीले होते
कसते-कसते
पक्के घर में
कच्चे रिश्ते
जोड़ रहा है गाँव

इससे उसको
उसको इससे
और न जाने
किसको किससे
तोड़ रहा है गाँव

गरमी हो बरखा
या जाड़ा
सबके आँगन
एक अखाड़ा
गोड़ रहा है गाँव

विकास की गति में मर्यादाओं का जो विखंडन हुआ है, उसकी चपेट में हमारे सारे रिश्ते-नाते आज लगभग बिला गये हैं| बच्चे-युवा और बड़े-बूढ़े मिलकर कभी समाज को एक एकात्म रागात्मकता का वातावरण देते थे, उसे आज विनष्ट होते देखकर कवि का खिन्न मन कह उठता है -

गुनगुनाती ज़िन्दगी की
लय न टूटे
...
बन्दरों के हाथ में
सद्ग्रन्थ के पन्ने पड़े
दाढ़ में गंगाजली को-
दाबकर कुत्ते लड़ें
शंख, घंटा
आस्था का घट
न फूटे देखियेगा

और अंत में उनके गीतकार का जो एक दार्शनिक पक्ष है, उसे नज़रंदाज़ करना सम्भव नहीं है| निम्न पंक्तियों में उन्होंने मानव जीवन के समग्र निचोड़ को यानी उसकी आस्था-अनास्था, उसके वयक्रमानुसार विविध आयामों, उन आयामों की सार्थकता और निरर्थकता, किसिम-किसिम की मानुषी स्पृहाओं आदि का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है -

सपने जीते हैं मरते हैं
सपनों का अंत नहीं होता

बाँहों में कंचन तन घेरे
आँखों-आँखों मन को हेरे
या फिर सितार के तारों पर
बेचैन उँगलियों को फेरे
बिन आँसू से आँचल भीगे
कोई रसवंत नहीं होता

सोने से हिलते दाँत मढें
या कामसूत्र के मंत्र पढ़ें
चाहे ख़िजाब के बलबूते
काले केशों का भरम गढ़ें
जो रोके वय की गतिविधियाँ
ऐसा बलवंत नहीं होता

साधू भी कहाँ अकेले हैं
परिवार नहीं तो चेले हैं
एकांतों के चलचित्रों से
यादों के बड़े झमेले हैं
जिसमानी मन के मरे बिना
कोई भी संत नहीं होता

अपने इस पूज्य अग्रज से मेरी अंतिम भेंट लगभग पाँच-छह वर्षों पूर्व हुई थी| लालगंज, उत्तर प्रदेश के बैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष और प्रसिद्ध नवगीतकार भाई डॉ. ओम प्रकाश सिंह ने मुझे वहाँ आमंत्रित किया था| उस दिन उनके सान्निध्य में बैठने का जो सुयोग मुझे प्राप्त हुआ था, वह आज भी मेरे मन को अपने सम्मोहन से बार-बार टेरता रहता है| आज भाई जी स्मृतिशेष हो चुके हैं, पर उनकी कालजयी गीत-देहयष्टि सदैव-सदैव हमारे बीच बनी रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है| उसे ही बारम्बार मेरा विनम्र नमन!
.

प्राप्त: 22 दिसम्बर 2017. प्रकाशित: 23 मार्च 2018.

***
Kumar Ravindra
's other poems on Kaavyaalaya

 Abhee Hone Do Samay Ko
 Kaash Hum Pagdandiyaan Hote
 Tair Rahaa Itihaas Nadee Mein
 Bakson Mein Yaadein
 mitra-sahejo
 Sun Sulakshanaa
 Har Makaan Boodhaa Hotaa
This Month :
'Kaal Ka Vaarshik Vilaas'
Nathooram Sharma 'Shankar'


savitaa ke sab or mahee maataa chakaraatee hai,
ghoom-ghoom din, raat, maheenaa varSh manaatee hai,
kalp lon ant n aataa hai,
haa, is asthir kaal-chakr men jeevan jaataa hai.

chhoD़ chhadan praacheen, naye dal vRkShon ne dhaare,
dekh vinaash, vikaash, roop, roopak nyaare-nyaare,
durङgee chait dikhaataa hai,
haa, is asthir kaal-chakr men jeevan
..

Read and listen here...
This Month :
'O Maan Bayaar'
Shanti Mehrotra


sooraj ko, kachchee neend se
jagaao mat.
doodh-mu(n)he baalak-saa
din bhar jhunjhalaayegaa
machalegaa, alasaayegaa
ro kar, chillaa kar,
ghar sir par uThaayegaa.
aadat buree hai yah
..

Read and listen here...
This Month :
'Aaye Din Alaawon Ke'
Indira Kislay


aae din
jalate hue,alaavon ke !!

salonee saanjh
makhamalee andheraa
thamaa huaa shor
har or
jee uThe dRshy
manoram gaanvon ke !!

..

Read and listen here...
संग्रह से कोई भी कविता | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेखहमारा परिचय | सम्पर्क करें

a  MANASKRITI  website