इन दर्पणों में देखा तो
अमृत खरे की श्रुतिछंदा पर प्रतिक्रिया

वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, ऐसे रूप में जो मैं समझ सकती हूँ, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है एक कृषि-प्रधान सभ्यता, सूर्य को शक्ति का स्रोत मानने वाली सभ्यता, जहाँ लोगों में वही कमजोरियाँ हैं जो आज के लोगों में भी हैं। तो उनका जुए के, ऋण के, रोग के जाल में फंसना उतना ही सम्भव था जितना कि आज हर मनुष्य के लिए है। उनके लिए खेती द्वारा खरी कमाई, ऋण-मुक्त जीवन, शाम ढले समय से घर आ जाना, स्वस्थ-निरोगी शरीर -- शांत, सफल जीवन की कुंजी है।

उदाहरण स्वरुप :

"जुआरी" शीर्षक की एक लम्बी रचना ऋग्वेद के 13 श्लोकों का काव्यानुवाद है। उसकी प्रारम्भिक पंक्तियां हैं

मैं जुआरी!
लुभाते हैं मुझे पासे।

जानता हूँ, हैं ये छूंछे
शुष्क कूपों से निकलते पात्रों से;
जानता, फलहीन हैं ये
बृहत बंजर बीच पनपे झाड़ जैसे;
किन्तु फिर भी कर रहे हर्षित...

"जोड़ो तुम भंग अंग" रचना अथर्ववेद के 7 श्लोकों का काव्यानुवाद है, जो एक आहत शरीर के पुनः निरोगी होने की प्रार्थना है

अंग भंग तन में है
जो कुछ भी
टूटा हुआ, फूटा हुआ
जला हुआ, पिसा हुआ चूर-चूर,
उसका कल्याण करो...

सबसे महत्वपूर्ण मैंने यह पाया कि इतने वर्षों पूर्व भी मानव वही प्यास महसूस करता था जो मैं आज महसूस करती हूँ!
तुम समर्थ, फिर क्यों हम प्यासे... (ऋग्वेद के एक श्लोक का काव्यानुवाद "प्यास बुझा दो" से)

अमृत खरे जी की पुस्तक 'श्रुतिछंदा' द्वारा यह जानना कि वेदों में इन विषयों पर भी रचनाएँ हैं यह मेरे लिए श्रुतिछंदा की सबसे रोचक और आश्चर्य की बात थी।

यह तो ज्ञात था कि वेद के समय में ही ऐसे विचारक थे जो यह मनन करते थे कि हमारी उत्पत्ति कहाँ से हुई, यदि सूर्य हमारी ऊर्जा का स्रोत है तो सूर्य का स्रोत क्या है। इन विषयों पर वेदों में अनेक ऋचाएं हैं। उन ऋचाओं का भी काव्यानुवाद श्रुतिछंदा में है, जिन्हें पढ़कर कर सुकून भी मिलता है, मार्गदर्शन भी मिलता है। अमृत जी की शब्दकला और ज्ञान की तो पहले से प्रशंसक हूँ, श्रुतिछंदा पढ़कर अमृत जी के कौशल और काव्यानुवाद की प्रक्रिया पर और विस्मय होता है -- क्योंकि उस रूपांतरण के बाद हिन्दी में ये रचनाएँ संस्कृत मूल से स्वतंत्र खड़ी होती हैं -- सौन्दर्य, कोमलता, ज्ञान से भरपूर। "त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिं पुष्टि वर्धनं" श्लोक का काव्यानुवाद सुगंध की तरह मन में छा जाता है। कोई चाहे तो आसानी से श्रुतिछंदा की कुछ रचनाओं का प्रयोग गायन, जप, पूजा, पाठ में कर सकता है -- जैसे कई घरों में संस्कृत की भगवत् गीता की जगह हिन्दी की हरि गीता का पाठ किया जाता है।

रचनाओं में नैसर्गिक रूप से लय बहता है जिससे लगता है कि इन्हें स्वर-बद्ध कर गाया जा सकता है। फिर भी कई रचनाओं में मुक्त-कविता के भी गुण हैं।

चुनी हुई ऋचाओं में ब्रह्मांड और हमारे स्रोत पर मनन करते हुए स्वयंभू की कल्पना है परन्तु अनादि अनन्त का उल्लेख बहुत कम है। यह बात भी मुझे रोचक लगी। शायद अनादि अनन्त की चर्चा उपनिषदों के पहले अधिक न हो। कहते हैं वेदों के अन्त में, वेदान्त में जीवन जीने की, हमारे अस्तित्व की कुंजी है। श्रुतिछंदा वहाँ तक नहीं जाती है। यद्यपि उसमें चारों वेदों की कुछ ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं।

मूलतः श्रुतिछंदा मार्गदर्शन की, पूजा की पुस्तक नहीं है। मेरे लिए श्रुतिछंदा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ज़रिए जो मेरा अपना है उसके विषय में मात्र कुछ जानकारी प्राप्त न कर, उसे मैं अपने सामने प्रत्यक्ष-सा पाती हूँ। और कोटि वर्षों पहले के मानव को मूलतः अपने जैसा ही पाती हूँ। इस दर्पण के लिए अमृत खरे को बधाई, साधुवाद, और आभार।

श्रुतिछंदा पढ़कर अन्त में, वेदों को छोड़, काव्यानुवादों को छोड़, बस एक सरल, मधुर अनुभूति रह जाती है। यही सबसे महत्वपूर्ण है।

प्रकाशित : 3 नवम्बर 2023

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Vani Murarka
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'बेकली महसूस हो तो'
विनोद तिवारी

बेकली महसूस हो तो गुनगुना कर देखिये।
दर्द जब हद से बढ़े तब मुस्कुरा कर देखिये।

रूठते हैं लोग बस मनुहार पाने के लिए
लौट आएगा, उसे फिर से बुला कर देखिये।

आपकी ही याद में शायद वह हो खोया हुआ
पास ही होगा कहीं, आवाज़ देकर देखिये।

हारती है बस मोहब्बत ही ख़ुदी के खेल में
हार कर अपनी ख़ुदी, उसको...

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'Pukaar'
Anita Nihalani


koee kathaa anakahee n rahe
vyathaa koee anasunee n rahe,
jisane kahanaa-sunanaa chaahaa
vaaNee usakee mukhar ho rahe!

ek prashn jo soyaa bheetar
ek jashn bhee khoyaa bheetar,
jisane use jagaanaa chaahaa
..

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