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उद्गार
रात के तीसरे पहर
कोयल की कूक ने हमको जगाया,
और कहा,
नए उषाकाल का
नए रंग, नयी चुनर का
आहवान करो !
किस मोड़ पर आकर रुक गए हो?
यादों की चादर ओढ़े
नयी तमन्ना, नयी उमंग,
कहानी नयी है।
किसी ने कहा बसंत आ गया,
किसी ने
बसंत आता नहीं ले आया जाता है।
हमने महसूस किया
यह वो तरंग है जो बहती है रगों में
निरंतर, रंगीन, नित नूतन।
- रणजीत मुरारका
Ranjeet Murarka
Email : [email protected]

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 रिश्ते तूफां से
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इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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