अभिभूत करतीं दिव्य-भव्य कवितायें
समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न

अमृत खरे

'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' ( कविता संग्रह ) आद्योपांत* पढ़ा, गुना, अनुभव किया और जिया| उसमें डूबा| मैं मैं न रहा| स्वयं कवि विनोद तिवारी हो गया| परकाया प्रवेश हो गया| यह निश्चित ही कवि और कविता की "सिद्धि" को सिद्ध करता है|

'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' काव्य-संग्रह में अग्रज डॉ. तिवारी की कविता के अनेक रंग देखने को मिलते हैं - गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, छंदमुक्त कविता, पैरोडी, बालकाव्य, भक्तिकाव्य! सब के सब रंग चटख, मनमोहक, उपयुक्त, सार्थक|

ऋग्वेद के एक मन्त्र का काव्यानुवाद करते हुए मैंने लिखा था -- "काव्य में सर्वत्र कवि है ,इस मनोरथ रूप संसृति में उसी की विमल छवि है!" डॉ. विनोद तिवारी और उनके काव्य-संसार पर यह पंक्ति सटीक बैठती है| इस संग्रह की रचनाओं में सर्वत्र कवि विनोद तिवारी का व्यक्तित्व समाया दीखता है -- सहज और सरल| भोलापन ऐसा कि --"रूठ जाओ, तो कोई बात नहीं, मान जाना मगर मनाने से!" इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा!!

काव्य -संग्रह की रचनाएं बताती हैं कि कवि भाँति-भाँति के वादों-विवादों से अपने को अलग रखने में समर्थ रहा है -- न दाएं झुका, न बाएं| सीधा खड़ा रहा| कविता के साथ कविता की तरह ही बरतना उसकी शक्ति बन गयी है और सार्थकता भी| जब वह कवि होता है, तब बस वह कवि ही होता है| वह अपनी आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि के सहारे काव्य-पथ पर निरंतर आगे बढ़ता रहता है, जो उसे प्रेम, शांति, करुणा, सौंदर्य, दया, क्षमा, समर्पण और आनंद की मंज़िल की ओर ले जाते हैं| वह किसी लहर में बहते नहीं, नारों से उत्तेजित नहीं होते, बनावट को ओढ़ते नहीं! उनका अपना खुद का अमृत-संसार है|

कवि विनोद जब गीत गाते हैं, तब विशुद्ध गीतकार बन जाते हैं| भावुक| भीगे-भीगे| स्वप्निल-स्वप्निल| उनके पास 'संयोग' का 'माधुर्य' भी होता है और 'विछोह' का 'उच्छवास' भी| वह 'आँखों के प्रश्न' बूझने लगते हैं, 'पीड़ा का आभास' करने लगते हैं| वह 'मौन धरा' और 'मौन क्षितिज' को देखकर 'निरुत्तर हुए आकाश' की विवशता भी जीने लगते हैं| जो न 'सच हो सकें' और न 'मिट ही सकें', ऐसे भटकते 'मधुर प्रीति के मधुर स्वप्नों' को गाने-गुनगुनाने लगते हैं| "परिभाषा से परे, स्वयं तुम अपनी परिभाषा लगती हो!", "गुनगुना लो प्यार से, यह गीत मेरा है तुम्हारा!", "समर्पित सत्य, समर्पित स्वप्न; तुम्हीं को मेरे मन के मीत!" जैसी गीत-पंक्तियाँ विनोद जी को एक समर्थ गीतकार के रूप में स्थापित करने को पर्याप्त हैं|

डॉ. विनोद तिवारी जब ग़ज़ल-गो बन कर कविता को संवारते हैं, तो यहां भी वह इधर-उधर भटकते नहीं, सीधे क्लासिकी-ग़ज़ल की परम्परा से जुड़ जाते हैं, क्यों कि उन्हें "कुछ भरोसा तो है उजालों पर"! इनके क्लासिकी-ग़ज़ल की सादगी और साफगोई वाली कहन में छुपी-गुंथी डायरेक्ट-अपील, जो ग़ज़ल को ग़ज़ल बनाती है, निश्चित ही कवि के व्यक्तित्व का भी हिस्सा है| यही साझी बात, साझी चीज़ दोनों को जोड़ती भी है; तभी वह कह पाते हैं कि "तू नहीं है, तो तेरी याद सही" या "तन्हाइयों में कोई मेरे साथ चल रहा है!"

विस्तार भय के होते हुए भी, मैं यहां विनोद जी के चंद अशआर उद्धृत कर रहा हूँ ताकि अपनी बात को सशक्त समर्थन दे सकूं --

भीड़ इतनी है मगर फिर भी अकेले सब हैं
कौन होता है किसी का जो हमारा होता।

कहाँ ये वक़्त, जो बढ़ता ही चला जाता है
कहाँ ये हम कि जहां पर थे, वहीं बैठे हैं|

वक़्त बदलेगा, नयी तारीख़ लिक्खी जाएगी
आप अपने हौसलों को आज़मा कर देखिये|

पारम्परिक गीतों और ग़ज़लों के साथ 'मुक्तकों' की संगत हमेशा से बनी रही है| 'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' में भी है| मुक्तक जीवन- दर्शन की अभिव्यक्ति के लिए कवियों को सर्वाधिक प्रिय रहे हैं| वस्तुतः अरबी-फ़ारसी की रुबाइयाँ और अवधी - ब्रज के चार पंक्तियों वाले 'सवैया' जैसे छंद भी मुक्तक ही हैं | डॉ. विनोद तिवारी भी जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति के लिए मुक्तक लेकर आते हैं कि हाँ , देखो , "यह मेरा जीवन दर्शन है!"... और उनका जीवन-दर्शन एक पंक्ति में यह है, "जो भी है, स्वीकार मुझे है!"... नहीं-नहीं, 'जो भी है' का अर्थ गलत न निकालें! एक मुक्तक की पंक्ति है, 'हम खड़े हो जाएँ, अपनी बेड़ियों को तोड़ कर!'

'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' काव्य-संग्रह में गीतों, ग़ज़लों और मुक्तकों के क्लासिकी जगत में पैरोडी, भजन, हास्य-व्यंग्य तथा बाल -कविता को भी जगह दी गयी है| ऐसे में भाव-जगत की भव्यता के ध्वस्त होने का ख़तरा बना रहता है, किन्तु यह कार्य इतनी खूबसूरती से किया गया है कि क्या कहने!

वस्तुतः 'समर्पित सत्य समर्पित स्वप्न' काव्य-संग्रह की समस्त रचनाएं, गीत-ग़ज़ल-मुक्तक से विधागत भिन्न रचनाएं भी, कविता के नए-नए आयाम बनाती हैं, नए-नए अर्थ खोलती हैं और नए-नए संसार रचती हैं| यह दिशा देती हैं , ऊंचाइयों को छूती हैं| मैं समर्थ-कवि अग्रज डॉ. विनोद तिवारी जी को उनकी दिव्य-भव्य काव्य-प्रतिभा के लिए और सुश्री वाणी मुरारका जी को उनकी सुदर्शन चित्रकारी, आकर्षक साज-सज्जा तथा सम्पादकीय-कौशल के लिए हृदय से बहुत-बहुत बधाई देता हूँ| आशा है कि यह काव्य-संग्रह कविता प्रेमियों को रुचेगा |

आद्योपांत : आदि से अन्त तक, शूरु से आखिर तक
काव्यालय को प्राप्त : 23 अप्रैल 2020; काव्यालय पर प्रकाशित: 1 मई 2020


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Amrit Khare
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kaun tum aruNim uShaa-see man-gagan par chhaa gayee ho!

              lok dhoomil ra(n)g diyaa anuraag se,
              maun jeevan bhar diyaa madhu raag se,
              de diyaa sansaar sone kaa sahaj
              jo milaa karataa baḌe hee bhaag se,
kaun tum madhumaas-see amaraaiyaa(n) mahakaa gayee ho!

             veethiya(n) soone hRday kee ..

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"tumul kolaahal kalah men
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        vikal hokar nity chanchal,
        khojatee jab neend ke pal,
        chetanaa thak-see rahee tab,
        main malay kee vaat re man!

chir-viShaad-vileen man kee,
is vyathaa ke timir-van kee;
..

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