रिमझिम सावन बरसा जब
अंक तुम्हें भर लायी थी
कुछ खोयी सी, कुछ अबूझ
कुछ खुश, कुछ घबराई थी
गोल मटोल, चार पैर पर
घर आँगन सब नाप लिया
नन्हे वामन जैसे तुमने
मेरा परिसीमन भांप लिया
पहली बार तीस मिनट जब
तुमसे हुई जुदाई थी
दरवाज़े पर बैठी बैठी
रो रो आँख सुजायी थी
धीरे धीरे ज्ञात हुआ
तुम ऐसे नहीं हो वैसे हो
जगह जगह सुनती आयी
तुम जाने कैसे कैसे हो
ठोक पीट कर सांचे में
तुमको सबने गढ़ना चाहा
पर मैंने पूरे मन से
सिर्फ तुम्हें पढ़ना चाहा
मुझको नियमों कानूनों से
दस्तूरों से कुछ काम नहीं
ये हम दोनों की दुनिया है
यहाँ और किसी का नाम नहीं
जो मुखरित होते शब्दों में
उनके भी भाव बिखरते हैं
तुम आँखों से जो कहते हो
वो सीधे, हृदय उतरते हैं
सब कहते हैं , तुम मुझसे हो
मैं तुमसे जीवन पाती हूँ
तुम सोते हो जब आँख भींच
मैं देख देख भर जाती हूँ ...
काव्यालय को प्राप्त: 2 Jul 2020.
काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Oct 2020