अप्रतिम कविताएँ
अघट घटती जा रही है
ये ज़िन्दगी बेचैन कुछ लम्हों में कटती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

किसी रोज़ उड़ चली, बदरंग मौसम में कभी
किसी रोज़ बह चली, पानी के कलकल में कभी
जैसे जैसे बिखरती वैसे सिमटती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

कभी तोड़ती कभी जोड़ती कुछ ऐंठ कर मरोड़ती
कुछ दर्प से कुछ दंश से, हर एक रिश्ता छोड़ती
फिर भी ऐसी धुन लगी, की चली चलती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

अर्थ हो कि निरर्थ हो, सब व्यर्थ की ही बात है
आँखें खुलीं तब दिन हुआ, जब बंद हों तो रात है
अनंत में सारी लकीरें, साथ सटती जा रही हैं
निरंतर अस्थिर अनिश्चित, अघट घटती जा रही है।
- जया प्रसाद

काव्यालय को प्राप्त: 29 Jul 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 18 Sep 2020

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घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
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