अप्रतिम कविताएँ
अघट घटती जा रही है
ये ज़िन्दगी बेचैन कुछ लम्हों में कटती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

किसी रोज़ उड़ चली, बदरंग मौसम में कभी
किसी रोज़ बह चली, पानी के कलकल में कभी
जैसे जैसे बिखरती वैसे सिमटती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

कभी तोड़ती कभी जोड़ती कुछ ऐंठ कर मरोड़ती
कुछ दर्प से कुछ दंश से, हर एक रिश्ता छोड़ती
फिर भी ऐसी धुन लगी, की चली चलती जा रही है
निरंतर अस्थिर अनिश्चित अघट घटती जा रही है।

अर्थ हो कि निरर्थ हो, सब व्यर्थ की ही बात है
आँखें खुलीं तब दिन हुआ, जब बंद हों तो रात है
अनंत में सारी लकीरें, साथ सटती जा रही हैं
निरंतर अस्थिर अनिश्चित, अघट घटती जा रही है।
- जया प्रसाद
विषय:
जीवन (37)
अधूरापन (3)

काव्यालय को प्राप्त: 29 Jul 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 18 Sep 2020

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कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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तुम तो पहले ऐसे न थे
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..

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1.
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जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
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सुनो,
अबसे
..

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