आहत सी सभ्यता के द्वार पे
कब तक निहारे आँगन
बंधन तोड़ जाना चाहती है
युगों का बोझ लिये बहती रही
थकने लगी है शायद
कुछ विश्राम पाना चाहती है
अथाह जल-राशि की जो स्वामिनी
क्षितिज पार होती हुई
अंतरिक्ष समाना चाहती है
ओह पायी है मधुरता कितनी
न आँसू भी धो सके
ये नमकीन होना चाहती है
बंधन में छटपटाती है बहुत
पत्थरों को तराशती
अब विस्तार पाना चाहती है
बांटती रही है जग को जीवन
भीगी-भीगी सी नदी
समंदर हो जाना चाहती है