अप्रतिम कविताएँ

नदी समंदर होना चाहती है
आहत सी सभ्यता के द्वार पे
कब तक निहारे आँगन
बंधन तोड़ जाना चाहती है

युगों का बोझ लिये बहती रही
थकने लगी है शायद
कुछ विश्राम पाना चाहती है

अथाह जल-राशि की जो स्वामिनी
क्षितिज पार होती हुई
अंतरिक्ष समाना चाहती है

ओह पायी है मधुरता कितनी
न आँसू भी धो सके
ये नमकीन होना चाहती है

बंधन में छटपटाती है बहुत
पत्थरों को तराशती
अब विस्तार पाना चाहती है

बांटती रही है जग को जीवन
भीगी-भीगी सी नदी
समंदर हो जाना चाहती है
- शिखा गुप्ता
Shikha Gupta
Email : [email protected]
विषय:
स्त्री (18)

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भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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