अप्रतिम कविताएँ पाने

क्या हूँ मैं
कलाई से कांधों तक आभूषित
एक नारी का प्रतिमान
मोअन-जो-दाड़ो में दबा
मेरा अनकथ संसार
क्या हूँ मैं ?
पन्नों में सिमटा
मात्र एक युगीन वृत्तान्त ?

खोया सारा समर्पित अतीत
लक्ष्मण-रेखा के पार
अग्नि भी जला ना पायी
एक संशय का तार
क्या हूँ मैं ?
युग-युग से पोषित मानस में
मर्यादा का प्रचार ?

इच्छा-प्राप्ति से संलग्न
आशीष में बसा श्राप
सप्त वचन के उपहास से
बिंधा आत्म-सम्मान
क्या हूँ मैं ?
धर्म-युद्ध पर आरोपित
मुर्ख अहंकार का प्रतिकार ?

देवी से दासी तक झूलता
एक अनसुलझा विचार
सदी दर सदी स्थापित
मानवता का संस्कार
क्या हूँ मैं ?
बाज़ार के अनुरूप बदलता
मात्र एक उत्पाद ?
- शिखा गुप्ता
Shikha Gupta
Email : [email protected]

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 क्या हूँ मैं
 नदी समंदर होना चाहती है
 मेरी मम्मी कहती हैं
इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

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