इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी
फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।
दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने
दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।
हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
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