अप्रतिम कविताएँ
घर आवो जी सजन मिठ बोला
घर आवो जी सजन मिठ बोला।
तेरे खातर सब कुछ छोड्या, काजर, तेल तमोला॥
जो नहिं आवै रैन बिहावै, छिन माशा छिन तोला।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, कर धर रही कपोला॥
- मीराबाई

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 घर आवो जी सजन मिठ बोला
 तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे
 पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
 पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो
 मेरे तो गिरिधर गोपाल
 श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो
इस महीने :
'अभिसार'
रवीन्द्रनाथ टगोर


एक बार की है यह बात, बड़ी अँधेरी थी वह रात,
चाँद मलिन और लुप्त थे तारे, मेघ पाश में सुप्त थे सारे,

पवन बहा फिर अमोघ अचूक, घर घर की बाती को फूंक,
गहन निशा बंद घरों के द्वार, स्तब्ध था मानो संसार।

ऐसी एक श्रावण रजनी में, अति प्राचीन मथुरा नगरी में,
प्राचीर तले अति श्रांत शुद्धचित्त, संन्यासी उपगुप्त थे निद्रित।

सहसा नूपुर ध्वनि ज्यों निर्झर, कोमल चरण पड़े जो उर पर,
चौंके साधक टूटी निद्रा, छूट गयी आँखों से तन्द्रा।
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ये पंक्तियाँ विनोद तिवारी के व्यक्तित्व का सार हैं‌ -- प्रकृति के रहस्यों को बेनक़ाब करने की एक वैज्ञानिक की ललक, दिलेरी, और कवि-मन की कोमलता और रूमानियत। साथ ही ये पंक्तियाँ इस पूरी पुस्तक के चमन में आपको आमंत्रित भी कर रही हैं।

इस महीने :
'जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे'
विनोद कुमार शुक्ल


जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।

एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

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