अप्रतिम कविताएँ

अभिसार

एक बार की है यह बात, बड़ी अँधेरी थी वह रात,
चाँद मलिन और लुप्त थे तारे, मेघ पाश में सुप्त थे सारे,

पवन बहा फिर अमोघ अचूक, घर घर की बाती को फूंक,
गहन निशा बंद घरों के द्वार, स्तब्ध था मानो संसार।

ऐसी एक श्रावण रजनी में, अति प्राचीन मथुरा नगरी में,
प्राचीर तले अति श्रांत शुद्धचित्त, संन्यासी उपगुप्त थे निद्रित।

सहसा नूपुर ध्वनि ज्यों निर्झर, कोमल चरण पड़े जो उर पर,
चौंके साधक टूटी निद्रा, छूट गयी आँखों से तन्द्रा।

क्षमाशील उन नैनों पर फिर रूढ़ दीप का प्रकाश पड़ा स्थिर,
देखा सम्मुख नगर की नटनी यौवन मद में चूर रंगीनी।

हाथ में दीपक लिए चली थी, प्रिय मिलन को उतावली थी,
नीला आँचल नील वसन, खनक रहे थे आभूषण।

ऋषि कुमार पर पड़ा जो पग, रुकी वह रमणी चकित सजग,
कैसी पावन थी वह सत्ता, अचरच में थी वासवदत्ता।

दीपक लेकर रही थी निहार, सौम्य मुख स्मित अति सुकुमार,
करुणारंजित नयन मनोहर, थी ललाट पर चन्द्र सी गोचर-

स्निग्ध अपरिमित शान्ति और मुख पर अद्भुत कान्ति!
“बड़ी भूल हो गयी कुमार, क्षमा दान दे दो इस बार

है धरातल अति कठोर, इस कठिन शय्या को छोड़
कृपया चलिए मेरे धाम, वहीं कीजिये फिर विश्राम।”

मधुर कंठ की सुन प्रार्थना, बोले भिक्षु “सुनो हे ललना
आऊँगा तुम्हारे पास, समय आने दो रखना आस।

अभी जहाँ को चली थी जाओ, सुखी हो अपना मन बहलाओ।”
सहसा नभ में आलोड़न, मेघों का भीषण गर्जन,

तड़ित शिखा ज्यों तीर कोई, मेघों का हिय चीर गयी,
कांप उठी नटनी संत्रस्त, अज्ञात किसी भय से ग्रस्त।

समयचक्र फिर बढ़ा जो आगे, माह-दिवस निज गति में भागे,
उत्तरार्ध में वर्ष के आई, चैत्र की एक संध्या अलसाई-

मुकुलित वृक्ष और पुष्पित कानन, चंचल वायु सुरभित उपवन,
भंवरें गुंजन करते गुन-गुन, दूर बजे बंसी की एक धुन,

मधुबन में लोगों का रेला, पुष्पोत्सव की आई बेला!
गए वहीं को सभी पुरवासी, निर्जन नगरी शांत धरा थी।

चले अकेले पथ पर साधक, नभ में पूर्णचंद्र अति मादक,
प्रेमातुर कोयल अकुलाए, मधुर मिलन के गीत सुनाए।

पीछे छोड़ नगर का द्वार, उपगुप्त ठिठके परिखा पार,
आम्रवन की पड़ी जहाँ छाया, धूल में किस नारी की काया?

उनके चरण से थी टकराई, रोगग्रस्त व्याकुल मुरझाई,
व्याधि रक्तवटी से भीषण कृशकाय श्यामल उसका तन!

देह के घाव रहे थे रिस, रह रह उठ रही थी टीस!
अंग विषैला लगे जो छूत, इस भय से होकर अभिभूत,

पुरवासी सब मिलकर साथ, उसे किसी गठरी में बाँध,
ले गए थे परिखा पार, फेंक आए थे कर परिहार।

देख उसकी दशा विकट, उपगुप्त बैठ गए निकट,
मस्तक उसका अंक में भर, जल से सींचे शुष्क अधर,

देह पर लेपा शीतल चन्दन, मंत्रोच्चार से तृप्त किया मन।
“हे करुणामय कौन हैं आप, हरने को आए संताप”-

हो कृतज्ञ बोली वह रमणी, महक उठी तब ललित वह रजनी!
कहे तपस्वी तरुण सदय -“आज अंततः हुआ समय!

निर्वाण कहो अभिसार कहो या कष्टों से उद्धार कहो,
दिया वचन निभाया हूँ, वासवदत्ता! मैं आया हूँ!”
- रवीन्द्रनाथ टगोर
- अनुवाद : टुषी भट्टाचार्य
- काव्यपाठ : नूपुर अशोक
अपरिमित = असीम, जिसकी सीमा न हो; अभिसार = प्रिय से मिलने जाना; अमोघ = अचूक
आलोड़न = हलचल; उर = हृदय; कृशकाय = दुबला शरीर; गोचर = दिखाई देना
तड़ित = बिजली; निद्रित = सोया हुआ; निर्झर = झरना; नटनी = नाचने वाली
प्राचीर = दीवार; मलिन = मैला; मुकुलित= कलियों से भरा हुआ; मेघ पाश = बादल से ढका हुआ
ललना = स्त्री; लुप्त = खोया हुआ; व्याधि= बीमारी; वसन = कपड़े; श्रांत = थका हुआ
संत्रस्त = भयभीत; संताप = कष्ट; सुप्त = सोया हुआ; हिय = हृदय

काव्यालय को प्राप्त: 17 Jun 2021. काव्यालय पर प्रकाशित: 12 May 2023

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