अप्रतिम कविताएँ

क्यूँ भिजोये ना

हिन्दी गीतान्तर

क्यूँ भिजोये ना नयनों के नीर से


क्यूँ भिजोये ना नयनों के नीर से, सूखे धूलि कण तेरे।
कौन जाने आओगे तुम्हीं, अनाहूत मेरे॥

पार हो आये हो मरु,
नहीं वहाँ पर छाया तरु,
पथ के दुःख दिये हैं तुम्हें, मन्द भाग्य मेरे॥

आलस भरे बैठा हुआ था मैं, अपने घर छाँव में,
जाने कैसी व्यथा हुई होगी, तुम्हें पाँव-पाँव में।

अन्तर में है कसक वही,
मौन दुःख में रणक रही,
गभीर हृदय क्षत हुआ है, दागे मर्म मेरे॥


अनाहूत: अनिमन्त्रित


बंगला मूल

केनो चोखेर जले भिजिये दिलेम ना


केनो चोखेर जले भिजिये दिलेम ना शुकनो धुली जॉतो
के जानितो आसबे तुमि गो अनाहूतेर मॉतो॥

पार होये एसेछो मरु,
नाइ जे सेथाय छायातरु,
पथेर दुःख दिलेम तोमाय गो, एमन भाग्यहॅतो॥

आलसेते बसे छिलेम आमि आपन घरेर छाये,
जानि नाइ जे तोमाय कॅतो व्यथा बाजबे पाये पाये।

ओइ वेदना आमार बुके,
बेजेछिलो गोपन दुखे,
दाग दियेछे मर्मे आमार गो, गभीर हृदय क्षतो॥


- रवीन्द्रनाथ टगोर
- अनुवाद : दाऊलाल कोठारी

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

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