अप्रतिम कविताएँ
विवशता
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
         पथ ही मुड़ गया था।

गति मिलि मैं चल पड़ा
         पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
         संगी अनसुना था।
चाँद सूरज की तरह चलता
         न जाना रातदिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
         आज भी कहना कठिन है,
तन न आया माँगने अभिसार
         मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
         लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
         कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
         समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
         आ गई आँधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
         किंतु पंछी उड़ गया था।
- शिव मंगल सिंह 'सुमन'

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 आभार
 विवशता
इस महीने :
'या देवी...'
उपमा ऋचा


1
सृष्टि की अतल आंखों में
फिर उतरा है शक्ति का अनंत राग
धूम्र गंध के आवक स्वप्न रचती
फिर लौट आई है देवी
रंग और ध्वनि का निरंजन नाद बनकर
लेकिन अभी टूटी नहीं है धरती की नींद
इसलिए जागेगी देवी अहोरात्र...

2
पूरब में शुरू होते ही
दिन का अनुष्ठान
जाग उठी हैं सैकड़ों देवियाँ
एक-साथ
ये देवियाँ जानती हैं कि
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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