अप्रतिम कविताएँ पाने

सुर्खियाँ
ढूँढती हैं निगाहेँ
सुर्खियाँ
राहजनी की
तख्तापलट की
बलात्कार की
भेदभाव की
काली सफ़ेद सुर्खियाँ
जीत की
हार की
उन्नत व्यापार की
दलितोँ के उत्थान की
महिलाओँ की उपलब्धि की
समाज के निर्माण की
वैज्ञानिक आविष्कार की|
सुर्खियाँ,
खिसक गयीं हैँ
चौथे पन्ने के चुनिन्दा
कोनों मेँ
कच्ची पक्की सुर्खियाँ|
सुर्खियोँ के बाजार मेँ
खड़ा हैँ इक्का दुक्का
आम आदमी
कल के अखबार मेँ
देख अपनी तस्वीर
आम से सरेआम
बटोरता चन्द दिनोँ
की सुर्खियाँ
कभी इज़्ज़त लुटवाने से
बेबस
कभी इज़्ज़त लूटने से
बेशर्म
बेपरवाह ज़माना
ढूँढता है लाल लाल
सुर्खियाँ
कुर्सी का फैसला
आज करती हैँ सुर्खियाँ
एक मृत्यु को ख़ास
बनाती
अनजान पक्ष की
बेबुनियाद सहानभूतियाँ
क़त्ल का क़त्ल करतीँ
सत्य के अवशेष
विसर्जित करतीँ
सुर्खियाँ,
कुचल देतीँ हैँ
शोक संतप्त अनुभूतियाँ ।
मृतप्राय वृक्ष की
शाख से लिपटी हुई
रक्तरंजित सुर्खियाँ
ढूँढती हैँ
विपरीत
विस्तृत
विलक्षण
प्रतिभा का आसरा ।
बैसाखियोँ के सहारे
रेंगती
ढूँढती हैँ निगाहेँ
सुर्ख़ियोँ के समंदर
मेँ समाहित
गर्भ
गर्वित
सुर्खियाँ ।
- मंजरी गुप्ता पुरवार
Manjari Gupta Purwar: [email protected]

काव्यालय पर प्रकाशित: 1 Jul 2016

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इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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