अप्रतिम कविताएँ
प्रीति करि काहु सुख न लह्यो
प्रीति करि काहु सुख न लह्यो।
प्रीति पतंग करी दीपक सों, आपै प्रान दह्यो॥
अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों, संपति हाथ गह्यो।
सारँग प्रीति करी जो नाद सों, सन्मुख बान सह्यो॥
हम जो प्रीति करि माधव सों, चलत न कछु कह्यो।
'सूरदास' प्रभु बिनु दुख दूनो, नैननि नीर बह्यो॥
- सूरदास
Ref: Swantah Sukhaaya
Pub: National Publishing House, 23 Dariyagunj, New Delhi - 110002

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घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
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हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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इन्दिरा किसलय


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हर ओर
जी उठे दृश्य
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