अप्रतिम कविताएँ
माँझी
साँझ की बेला घिरी, माँझी!

अब जलाया दीप होगा रे किसी ने
                           भर नयन में नीर,
और गाया गीत होगा रे किसी ने
                           साध कर मंजीर,
मर्म जीवन का भरे अविरल बुलाता
                           सिंधु सिकता तीर,
स्वप्न की छाया गिरी माँझी!

दिग्वधु-सा ही किया होगा किसी ने
                           कुंकुमी श्रृंगार,
छिलमिलाया सोम-सा होगा किसी का
                           रे रुपहला प्यार,
लौटते रंगीन विहगों की दिशा में
                           मोड़ दो पतवार!
सृष्टि तो माया निरी, माँझी!
- डा. महेन्द्र भटनागर
विषय:
प्रेम (60)
शाम (11)

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छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
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जो छाता है
उसमें

..

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