अप्रतिम कविताएँ
माँझी
साँझ की बेला घिरी, माँझी!

अब जलाया दीप होगा रे किसी ने
                           भर नयन में नीर,
और गाया गीत होगा रे किसी ने
                           साध कर मंजीर,
मर्म जीवन का भरे अविरल बुलाता
                           सिंधु सिकता तीर,
स्वप्न की छाया गिरी माँझी!

दिग्वधु-सा ही किया होगा किसी ने
                           कुंकुमी श्रृंगार,
छिलमिलाया सोम-सा होगा किसी का
                           रे रुपहला प्यार,
लौटते रंगीन विहगों की दिशा में
                           मोड़ दो पतवार!
सृष्टि तो माया निरी, माँझी!
- डा. महेन्द्र भटनागर
Dr. Mahendra Bhatnagar
Email : [email protected]
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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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