1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।
सुनो,
अबसे तुम भी चला करो
मेरे साथ वहाँ।।
2.
मैंने भी लिखी है प्रेम कविता
कई बार।
हर बार,
शब्द मौन हो गए;
स्याही कागज़ तक तो गई
पर समा गई कागज़ में पूरा का पूरा,
नहीं दिखा उसे खुद का दिखना
प्रेम में ।
और, सब ने कह दिया
नहीं दिखी मेरी प्रेम कविता।।
सुनो,
तुम तो जानती हो न
नहीं दिखता है खुद का दिखना
प्रेम में।।
3.
फिर तो ठीक ही है कि
मैं ने नहीं लिखी कोई प्रेम कविता।
'मैं' लिख सकता है क्या प्रेम को?
नहीं न!
फिर कौन लिखे प्रेम?
काव्यालय को प्राप्त: 25 May 2025.
काव्यालय पर प्रकाशित: 29 Aug 2025