अप्रतिम कविताएँ
सत्ताईस फरवरी : शहीद का ब्याह
बड़े दिनों की लालसा, बड़े दिनों की चाह।
लिख पायेगी लेखनी, क्या शहीद का ब्याह ?

भाग-1

स्वर्ग लोक में सभा सजी थी, सब थे पद आसीन
मृत्यु प्रफुल्लित खड़ी हुई थी, यम थे पीठासीन।
बेटी की शादी निकट खड़ी माथे पर चिंता भारी
सत्ताईस फरवरी तिथि निश्चित पूर्ण नहीं तैयारी।

ऋतुराज वहाँ पर थे आमंत्रित बैठे थे औरों में
था प्रयाग को भी आमण्त्रण भारत के नगरों से
"नगर सजाना है प्रयाग का, कुसुमाकर यह आप सुनें
स्वयं सहायक हों प्रयाग भी" मृत्युजनक यह बोल उठे।

"समय पास अब बचा नहीं है तनिक करें न देरी
सभी सजावट वर लायक हों सुने बात यह मेरी।
यह विलास का रूप सुनें कुसुमाकर नहीं चलेगा
महा पराक्रमी वर जो मेरी तनुजा मृत्यु वरेगा।"

"मेरे खुद के गण गोरे दुश्मन का रूप धरेंगे
द्वारचार पर दूल्हे का गोली से तिलक करेंगे।
वहां बजेगी सुनें गोलियों की ध्वनि में शहनाई
नहीं जँचेगी कुसुमाकर यदि तब मादकता छायी।"

"वह अवसर मधुमास नहीं है कदापि मलय पवन का
वह अवसर है सुनो, भवानी-भैरव के नर्तन का।
उस अवसर पर वहाँ दुंदुभि रण की बजनी होगी
वह अवसर है पाञ्चजन्य1 और सिंह गर्जन का।"

"फूलों से कहना वसंत कुछ अजब पराग रचेंगे
भँवरे भी उनका रस पी तब युद्ध राग गूंजेंगे।
और पुरोहित बनकर मैं खुद रावण रूप धरूँगा
फेरों की बेला पर मैं शिव-ताण्डव-स्तोत्र कहूँगा।"

भर उठे रोमाँच से जो भी उपस्थित थे वहाँ
बस एक मन में प्रश्न, वर कौन है, रहता कहाँ ?
मृत्यु की सखियाँ, सो बोलीं, पास में जो थीं खड़ी
"वह कौन है, हमको बताओ, राज कुछ खोलो सखी?"

गर्व चेहरे पर धरे, रोमाँच से ले तन भरा
याद कर प्रिय वर अपना, मृत्यु ने सबसे कहा

"रूद्र रूप ले वह जन्मा है, चंद्रभाल2 सो नामकरण
अँगुली पर पिस्टल नचा नचा , भैरव सा करता अरि मर्दन।
स्वातन्त्र्य युद्ध का वह योद्धा, आज़ाद नाम से फिरता है
गोरों के लोहू से जब तब काली का खप्पर भरता है।
'जीवित ना पकड़ा जाऊँगा' वह इस प्रण का भी कर्ता है
वह शेष गोलियाँ रिपु खातिर, आखिरी स्वयं को धरता है। "

"वह भेष बदलने में माहिर, वह बघनख3 का भी धारक है
वह क्रांतिकारियों का नेता, भय आदि शत्रु का मारक है।
भारत में जलती सम्प्रति जो, उस क्रान्ती का वह पावक है
यौवन में उसका दर्शन भी, यौवन का उद्धारक है।"

"मुझको तनिक निकट देख सब लोग सिहरने लगते हैं
कितना भी मैं करूँ निवेदन, प्रणय मुकरने लगते हैं।
लेकिन, वह अलबेला तो खुद हाथ चूम कर मेरा
बोला मुझसे, प्रिय तुम मेरी, वरण कर रहा तेरा।"

"बन सीता मन में तू बसना मृत्यु मेरी ओ भोली
सूर्पनखा बन कर आ जाए यदि गोरों की टोली।
बनो पद्मिनी, कसम तुझे है, तेरे ही जौहर की
स्वयं समाहित होना मुझमें लाज मिटे न प्रण की।
प्रण मैं यह लेता हूँ प्रिय अब तेरे ही सम्बल से
'पकड़ नहीं सकता जीवित अरि' हो जितने दल बल से।"

भाग-2

इस तरह हुई तैयारी, फिर सत्ताइस फरवरी दिन आया
अपने ही इक साथी से पंडितजी4 ने धोखा खाया।
स्वातंत्र्य सैनियों से मिलने वे प्रयाग तक पहुंचे थे
अल्फ्रेड नोबेल पार्क बैठ कुछ नयी मंत्रणा करते थे।

अंग्रेज पुलिस को मिली सूचना उनके इक साथी से
'आज़ाद, पार्क में बैठे हैं संग और एक बागी के'।
पार्क पुलिस ने घेर लिया था और घोषणा कर दी
'करो समर्पण, मरोगे वर्ना, अगर गोलियाँ चल दीं।'

आजाद की माउज़र भरी हुई, कुछ और गोलियां संग थी
जोड़ लगाया उन सब का तो कुल गोली सोलह थी।
वृक्ष आड़ ले किया मुआयना, द्वार शत्रु घेरे था
वह मुस्काये, द्वारचार पर तिलक तो तय पहले था।

वर ने भी फिर स्वयं आगमन की सूचना दे दी
पहली गोली चली इधर से, द्वार गिरा इक बैरी।
अंग्रेजों की एक साथ फिर कई गोलियाँ बरसीं
वधू की सखियाँ अग्निपुष्प से वर न्यौछावर करतीं।

शेखर के पिस्टल की गोली सब उनको सखा मानतीं
ऊँगली दबते, काल बनीं वे, इतना कहा मानतीं।
उस काल-खंड में, स्वयं काल भी, वहाँ ठहर गया था
रिपुदल का पाषाण किला भी अतः ढहर गया था।
थर-थर काँप रहे ऋतुराज, वहाँ पर खड़े हुए थे
जिधर घुमाते नज़र शत्रु शव उधर पड़े हुए थे।

इस प्रकार जैसे ही द्वार शेखर खाली कर पाए
तुरत भगाया साथी को पर खुद वे भाग न पाए।
इतने में कुछ और पुलिस वाले चढ़ते आते थे
मृत्यु लिए जयमाल, देखकर, शेखर मुस्काते थे।

एक बार अब शेखर की पिस्टल फिर से गरजी थी
स्व-शरीर से मुक्त हुआ, वह जिस पर भी बरसी थी।
किन्तु हाय अब अंतिम गोली ही पास बची थी
वर के पास वधू आ पहुंची, कैसी गजब घड़ी थी।

शेखर शरीर चित्तौड़ दुर्ग सा, वहाँ पद्मिनी आयी
कनपटी से पिस्टल सटा दिया, जौहर को चिता सजाई।
खिलजी से गोरे रहे ताकते, हाथ नहीं कुछ आया
अंतिम प्रणाम कर मातृभूमि को, शेखर ने ट्रिगर दबाया।

शांत हुआ आज़ाद माउज़र पर अरि वहाँ चकित थे
हिम्मत नहीं, निकट जाएँ, सब इतने आतंकित थे।
वहीँ दूर से दगीं गोलियाँ उनके शव पर फिर से
गीदड़ ने कब नज़र मिलायी, मरे हुए ही, सिंह से?

फूट चुका वर का मटका5 था, रक्त-नीर की धार बही
अरुणिम लाज लिए मुख पे थी वधू उसी से नहा रही।
रक्त मांग था, रक्त हिना भी, दुल्हन थी पूरी लोहित
रक्त-मृदा के उबटन से वर लथपथ तन होता शोभित।

आजाद-मृत्यु की खबर नगर में अग्नि-लपट सी फैली
उन्हें नमन करने निकलीं पूरे प्रयाग से रैली।
जहाँ शहादत दी शेखर ने, वीरभूमि कहलायी
वहाँ की थोड़ी-थोड़ी मिट्टी सबके घर को आयी।

उस मिट्टी की भस्म लगाकर सबने अलख जगाया
आजाद तिरंगा सैंतालिस में तब जाकर लहराया।

1. पाञ्चजन्य = कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा बजाया गया शंख
2. चंद्रभाल = चंद्रशेखर
3. बघनख = चंद्रशेखर आज़ाद बचपन में बड़े दुबले पतले थे।
स्वास्थ्य हेतु उन्हें बाघ का नाखून पहनाया गया था
4. पंडितजी = चंद्रशेखर आजाद को उनके साथी पंडितजी
नाम से भी बुलाते थे
5. वर का मटका = विवाह को जाने से पूर्व वर जिस पानी से
नहाता है, वही पानी एक मटके में भर कर दुल्हन के घर जाता
है। उस मटके को 'वर का मटका' कहते हैं। दुल्हन को विवाह
पूर्व उसी पानी से स्नान करना होता है। आज कल बोतल में
पानी जाता है, और रस्म अदायगी के लिए दुल्हन पर सिर्फ
थोड़ा छिड़क दिया जाता है |
- प्रदीप शुक्ला
Email: [email protected]

काव्यालय को प्राप्त: 16 Mar 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 22 Feb 2018

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