अप्रतिम कविताएँ पाने
कच्ची-कच्ची धूप
सरसों के दामन से लिपटी
मन से कच्ची-कच्ची धूप ।।

बूढ़ा जाड़ा मोहपाश में
दिन को जकड़े रहता
काँख गुदगुदी करता सूरज
दिन किलकारी भरता

कभी फिसलती कभी सम्हलती
करती माथा-पच्ची धूप ।।

चारों ओर देख बदहाली
मन उसका घबराता
वर्षा जब करती मनमानी
सिर उसका चकराता

किरण-किरण को चुन-चुन देती
सबको, सच्ची -सच्ची धूप।।

आसमान की छत वालों को
चुटकी काट हँसाती
आएगा ऋतुराज जल्द ही
चिट्ठी बाँच सुनाती

खुशियों की चादर में बुनती
खुद को लच्छी-लच्छी धूप।।

सरसों के दामन से लिपटी
मन से कच्ची-कच्ची धूप ।।
- कल्पना मनोरमा
"कब तक सूरजमुखी बनें हम" कल्पना मनोरमा का नवगीत संग्रह है। इनके गीत और लघुकथाएँ कई साझा संकलनों में भी शामिल हो चुके है। "कस्तूरिया" इनका अपना ब्लॉग है।

काव्यालय को प्राप्त: 8 Jan 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 14 Jan 2022

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 दिसंबर की डाल पर
इस महीने :
'साँझ फागुन की'
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फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
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लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
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लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
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..

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यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
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..

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