कच्ची-कच्ची धूप
सरसों के दामन से लिपटी
मन से कच्ची-कच्ची धूप ।।
बूढ़ा जाड़ा मोहपाश में
दिन को जकड़े रहता
काँख गुदगुदी करता सूरज
दिन किलकारी भरता
कभी फिसलती कभी सम्हलती
करती माथा-पच्ची धूप ।।
चारों ओर देख बदहाली
मन उसका घबराता
वर्षा जब करती मनमानी
सिर उसका चकराता
किरण-किरण को चुन-चुन देती
सबको, सच्ची -सच्ची धूप।।
आसमान की छत वालों को
चुटकी काट हँसाती
आएगा ऋतुराज जल्द ही
चिट्ठी बाँच सुनाती
खुशियों की चादर में बुनती
खुद को लच्छी-लच्छी धूप।।
सरसों के दामन से लिपटी
मन से कच्ची-कच्ची धूप ।।
काव्यालय को प्राप्त: 8 Jan 2022.
काव्यालय पर प्रकाशित: 14 Jan 2022