अप्रतिम कविताएँ
थकी दुपहरी में पीपल पर
थकी दुपहरी में पीपल पर,
काग बोलता शून्य स्वरों में,
फूल आख़िरी ये बसन्त के
गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों में

धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की-गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर।
अब अशोक के भी थाले में
ढेर-ढेर पत्ते उड़ते हैं,
ठिठका-नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर।

वन-खेतों पर है सूनापन,
खालीपन निशब्द घरों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में।

यह जीवन का एकाकीपन--
गरमी के सुनसान दिनों सा,
अन्तहीन दोपहरी डूबा
मन निश्चल है शुष्क वनों सा।
ठहर गई हैं चीलें नभ में,
ठहर गई है धूप-छांह भी,
शून्य तीसरा पहर पास है
जलते हुए बन्द नयनों सा।

कौन दूर से चलता आता,
इन गरमीले म्लान पथों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में।
- गिरिजा कुमार माथुर
धीवर -- मल्लाह, मछुआ, केवट
संग्रह "मुझे और अभी कहना है" से
Contributed by Sukanya Sharma
विषय:
प्रकृति (41)
गरमी (2)

काव्यालय पर प्रकाशित: 10 May 2018

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तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने
..

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कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
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तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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