अप्रतिम कविताएँ
रात हेमन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की
दीप-तन बन ऊष्म करने
सेज अपने कन्त की

नयन लालिम स्नेह दीपित
भुज मिलन तन-गन्ध सुरभित
उस नुकीले वक्ष की
वह छुवन, उकसन, चुभन अलसित

इस अगरु-सुधि से सलोनी हो गयी है
रात यह हेमन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की

धूप चन्दन रेख सी
सल्मा-सितारा साँझ होगी
चाँदनी होगी न तपसिनि
दिन बना होगा न योगी

जब कली के खुले अंगों पर लगेगी
रंग छाप वसन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की
- गिरिजा कुमार माथुर
गिरिजा कुमार माथुर का काव्य संग्रह मुझे और अभी कहना है से
हेमन्त : सर्दी की एक ऋतु (हिम, बर्फ से); ऊष्म : गरम; सेज : बिस्तर; कन्त : पति; अगरु : एक सुगंधित वृक्ष अगर की लकड़ी;

काव्यालय पर प्रकाशित: 21 Dec 2018

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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

स्वागत है अपनी...

..

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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