अप्रतिम कविताएँ
रात हेमन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की
दीप-तन बन ऊष्म करने
सेज अपने कन्त की

नयन लालिम स्नेह दीपित
भुज मिलन तन-गन्ध सुरभित
उस नुकीले वक्ष की
वह छुवन, उकसन, चुभन अलसित

इस अगरु-सुधि से सलोनी हो गयी है
रात यह हेमन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की

धूप चन्दन रेख सी
सल्मा-सितारा साँझ होगी
चाँदनी होगी न तपसिनि
दिन बना होगा न योगी

जब कली के खुले अंगों पर लगेगी
रंग छाप वसन्त की
कामिनी सी अब लिपट कर सो गयी है
रात यह हेमन्त की
- गिरिजा कुमार माथुर
गिरिजा कुमार माथुर का काव्य संग्रह मुझे और अभी कहना है से
हेमन्त : सर्दी की एक ऋतु (हिम, बर्फ से); ऊष्म : गरम; सेज : बिस्तर; कन्त : पति; अगरु : एक सुगंधित वृक्ष अगर की लकड़ी;

काव्यालय पर प्रकाशित: 21 Dec 2018

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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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