रंगों की मृगतृष्णा कहीं
डरती है कैनवस की उस सादगी से
जिसे आकृति के माध्यम की आवश्यकता नहीं
जो कुछ रचे जाने के लिये
नष्ट होने को है तैयार
स्वीकार्य है उसे मेरी,
काँपती उंगलियों की अस्थिरता
मेरे अपरिपक्व अर्थों की मान्यतायें
मेरे अस्पष्ट भावों का विकार
तभी तो तब से अब तक
यद्यपि बहुत बार
एकत्रित किया रेखाओं को,
रचने भी चाहे सीमाओं से
मन के विस्तार
फिर भी कल्पना को आकृति ना मिली
ना कोई पर्याय, ना कोई नाम
बिछी है अब तक मेरे और कैनवस के बीच
एक अनवरत प्रतीक्षा...
जो ढूँढ रही है अपनी बोयी रिक्तताओं में
अपनी ही सृष्टि का सार॥
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अंशु जौहरी