अप्रतिम कविताएँ
नदी का बहना मुझमे हो
मेरी कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो।

तट से सटे कछार घने हों
जगह जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मंदिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तने हों

मीड़ मूर्च्छनाओं का
उठना गिरना मुझमें हो।

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये खाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय बाघ या बकरी

मच्छ मगर घडियाल
सभी का रहना मुझमें हो।

मैं न रुकूँ संग्रह के घर मे
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काट कर नहरे
पानी ले जायें ऊसर मे

जहाँ कहीं हो बंजरपन का
मरना मुझमें हो।
- शिव बहादुर सिंह भदौरिया
मीड़: संगीत में एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाना। मूर्छना: सात स्वरों का आरोह अवरोह। कगरी: ऊँचा किनारा, ओंठ। ऊसर: नोनी भूमि, जहाँ अन्न उत्पन्न नहीं होता है

काव्यालय पर प्रकाशित: 18 Jan 2018

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कल्प लों अन्त न आता है,
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छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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