अप्रतिम कविताएँ
एक मनःस्थिति
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।

केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी खुले ही नहीं;
जकड़े रह गए हैं।

चाँद-तारे सब
काले पड़े हुए
झूठे सलमे-सितारों का काम हैं।

जैसे इस गुलजार गली में
कहीं कोई नहीं,
केवल नाम हैं।

जैसे हर नया दिन
एक आलसी, बे-कहे नौकर-सा
झुँझलाता आता है
और धूल-भरे आँगन को
बे-मन से झाड़ कर
चला जाता है।
- शान्ति मेहरोत्रा
विषय:
उदासी (19)
आम दिन (4)

काव्यालय को प्राप्त: 10 Nov 2024. काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Apr 2025

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 एक मनःस्थिति
 ओ माँ बयार
इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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इस महीने :
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और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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इस महीने :
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प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

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