अप्रतिम कविताएँ
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
चिंतन के उत्तुंग शिखर पर, गिर-गिर चढ़ती ही रहती है

पग-पग पर ठोकर लगने से, नए-नए अनुभव जगते हैं
बहते हुए घाव लोहू की, लौ जैसे जलते लगते हैं
और उसी के लाल उजाले में विचार चलता रहता है
धीरे-धीरे जैसे अपनी केन नदी में जल बहता है

मन के भीतर नए सूर्य की, प्रतिमा गढ़ती ही रहती है
यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है

यह विचार परिवर्तनधर्मी होकर दाय नया गहता है
जय के प्रति विश्वास लिए, युग की सर्दी-गर्मी सहता है
बीते हुए समय के तेवर फिर-फिर रोज़ उलझते रहते
पीड़ा की किरणों से इसके, सारे द्वंद्व सुलझते रहते

नभ पर लिखे हुए भावी के अक्षर पढ़ती ही रहती है
कैसी यह दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है
- कृष्ण मुरारी पहारिया
दुर्धर्ष : प्रबल, जिसे वश में करना कठिन है | केन नदी : मध्यप्रदेश में बहने वाली एक बड़ी नदी
विषय:
अध्यात्म दर्शन (34)

काव्यालय पर प्रकाशित: 31 May 2024

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

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इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर


कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

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