एक मनःस्थिति
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी खुले ही नहीं;
जकड़े रह गए हैं।
चाँद-तारे सब
काले पड़े हुए
झूठे सलमे-सितारों का काम हैं।
जैसे इस गुलजार गली में
कहीं कोई नहीं,
केवल नाम हैं।
जैसे हर नया दिन
एक आलसी, बे-कहे नौकर-सा
झुँझलाता आता है
और धूल-भरे आँगन को
बे-मन से झाड़ कर
चला जाता है।
काव्यालय को प्राप्त: 10 Nov 2024.
काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Apr 2025
इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...