कॉरोना काल का प्रेम गीत
यह प्रतीक्षा की घड़ी है,
तुम उधर असहाय, हम भी हैं इधर निरुपाय
उस पर
बीच में दुविधा अड़ी है!
यह प्रतीक्षा की घड़ी है!
यूँ हुए अभिशप्त,
अर्जित पुण्य
हो निष्फल गए हैं,
स्वर्ग से लाये धरा पर
सूख सब
परिमल गए हैं,
यह समीक्षा की घड़ी है,
क्या किया है पाप हमने या कि तुम ने
या कि जग ने,
जो ये विपदा आ पड़ी है!
तन था
वृन्दावन सरीखा
क्यों शिलावत हो गया है,
मन कन्हैया था,
अचानक
क्यों तथागत हो गया है,
यह परीक्षा की घड़ी है,
एक भी उत्तर अभी सूझा नहीं है
और सम्मुख
यक्ष - प्रश्नों की लड़ी है!
काव्यालय को प्राप्त: 18 May 2020.
काव्यालय पर प्रकाशित: 3 Jul 2020
इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
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