अप्रतिम कविताएँ
अभिव्यक्तियां
सांझ ढलते ढलते मेरे पदचाप ले गई
मेरी झोली में गुलमोहर व बबूल के फूल दे गई
तुम्हारी याद आई तो भीगी पलकों की जगह
नीले आसमान की गहराई दे गई
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तुमको पकड़ने चली थी ओ सूर्य
पाया तो केवल
अंजुलि भर
रंग बिरंगा क्षितिज
तुम्हारे ताप में सोने चली
तो संध्या
अपनी ओट में ले बैठी तुम्हे
आज तुम्हारे
अलसाए आवरण को निहारने चली
तो रात की कालिमा
अपने आलिंगन में ले चली मुझे।
******

खुलती जाती हैं परतें इस अंधेरे की
कि शायद कोई सुबह लौट आए
हर रोज़ बहाना बना उसे मना लाते हैं
कि शायद वो ही ख्वाब बन
मेरी नींदों में लौट आए
******

आकार जब धुँधले हो जाते हैं
तो रंगो को बुला लाते हैं
शायद वो ही
मेरी तूलिका बन
मेरी तस्वीर बना जाए।
******

यह साँझ जाते हुए बूढ़ी आँखों को फिर
सुनहरा आकाश दिखा जाती है
अपनी मुठ्ठी में अँधेरे को समेटते हुए
जुगनू की चमक दिखा जाती है
चेहरे की झुर्रियों में कहानियाँ लिख कर
नया इतिहास बना जाती है
आने वाले की खोज में मैं हूँ या नहीं
बूढ़ी आँखें ढलते सूरज से पूछ जाती हैं
कितनी परिभाषाओं से यह वर्तमान बना है
इसका विश्लेषण शरद ऋतु की पूर्णिमा पर
छोड़ जाती है।
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- रजनी भार्गव
Rajni Bhargava
email: [email protected]
Rajni Bhargava
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सविता के सब ओर मही माता चकराती है,
घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन जाता है।

छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
..

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सूरज को, कच्ची नींद से
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मचलेगा, अलसायेगा
रो कर, चिल्ला कर,
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..

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आए दिन
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थमा हुआ शोर
हर ओर
जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!

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