अप्रतिम कविताएँ
यूँ छेड़ कर धुन
यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर चित्र भर
ले कल्पना की तूलिका
और भाव के उजले बसंती रंग भरता रहा
जैसे स्वप्न से मिलने को आतुर

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
मैं समय की मुक्तावली को रख परे
उन्माद नयनों में भरे
विस्तीर्ण नभ से धरा तक ढूँढा किया
ध्वनिस्रोत
खोया थिरकते पग का नूपुर

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर
- कमलेश पाण्डे 'शज़र'
Kamlesh Pandey
Email : [email protected]

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घूम-घूम दिन, रात, महीना वर्ष मनाती है,
कल्प लों अन्त न आता है,
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छोड़ छदन प्राचीन, नये दल वृक्षों ने धारे,
देख विनाश, विकाश, रूप, रूपक न्यारे-न्यारे,
दुरङ्गी चैत दिखाता है,
हा, इस अस्थिर काल-चक्र में जीवन
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