अप्रतिम कविताएँ
यात्रा और यात्री
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
                 पाँव के नीचे पड़ी
                 अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
                 शक्तियाँ गति की तुझे
                 सब ओर से घेरे हुए है;
                 स्थान से अपने तुझे
                 टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
                 घास मखमल-सी जहाँ थी
                 मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
                 पग परीक्षा, पग प्रलोभन
                 ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
                 इस तरफ डटना उधर
                 ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
                 शुक्रिया उनका कि वे
                 पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
                 और जो उत्साह का
                 देते कलेजा चीर, ऐसे
                 कंटकों का दल तुझे
                 दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
                 एक झोंके ने बुझाया
                 हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
                 एक कोने में हृदय के
                 आग तेरे जग रही है,
                 देखने को मग तुझे
                 जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
                 यह मनुज की वीरता है
                 या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
                 सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
                 स्वप्न, पर चलना अगर है,
                 झूठ से सच को तुझे
                 छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
         साँस चलती है तुझे
         चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
- हरिवंशराय बच्चन
Ref: Satrangini - Dr. Harivansh Rai Bachchan
Pub: Rajpal and Sons
Kashmiri Gate, Delhi -

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ऐसी एक श्रावण रजनी में, अति प्राचीन मथुरा नगरी में,
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सहसा नूपुर ध्वनि ज्यों निर्झर, कोमल चरण पड़े जो उर पर,
चौंके साधक टूटी निद्रा, छूट गयी आँखों से तन्द्रा।
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ये पंक्तियाँ विनोद तिवारी के व्यक्तित्व का सार हैं‌ -- प्रकृति के रहस्यों को बेनक़ाब करने की एक वैज्ञानिक की ललक, दिलेरी, और कवि-मन की कोमलता और रूमानियत। साथ ही ये पंक्तियाँ इस पूरी पुस्तक के चमन में आपको आमंत्रित भी कर रही हैं।

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