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तबीयत से उछालो यारो
यह जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो,
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो।

दर्दे दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा,
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो।

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे,
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो।

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे,
आज संदूक से वे ख़त तो निकालो यारो।

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की,
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो।
- दुष्यन्त कुमार
शहतीर : लम्बी लकड़ी, लठ्ठ; सय्याद : शिकारी; सीवन : सिलाई ; सूराख़ : छेद

काव्यालय पर प्रकाशित: 14 Oct 2022

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 एक आशीर्वाद
 तबीयत से उछालो यारो
 हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

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इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

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