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व्यथा जी उठी
अचेत की धूल में गढ़ी,
जंग से मढ़ी,
बरसों पहले की व्यथा,
मौन थी, सुप्त थी।
अपने आपको लपेटे थी।
चेतन ने उसे गाड़ा था यहाँ,
सँभाल न पा रहा था, अपने यहाँ।
उस दिन किसी ने,
अनजाने में
उसे छू लिया,
तो वह कराह उठी,
कुलबुला उठी,
मृत व्यथा
फिर जीवित हो गयी थी।
चेतन ने भी
उसके जी उठने पर
कुछ अश्रु-बूँदें
बहायी थीं।
- गीता मल्होत्रा
Geeta Malhotra
Email: [email protected]
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 व्यथा जी उठी
 होली की शाम
इस महीने :
'साँझ फागुन की'
रामानुज त्रिपाठी


फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनवीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने

दिवस मादक होश खोए लग रहे,
साँझ फागुन की नशीली हो गई।

हँसी शाखों पर कुँवारी मंजरी
..

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इस महीने :
'यूँ छेड़ कर धुन'
कमलेश पाण्डे 'शज़र'


यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मानस की दीवारों पर

..

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