अप्रतिम कविताएँ

व्यथा जी उठी
अचेत की धूल में गढ़ी,
जंग से मढ़ी,
बरसों पहले की व्यथा,
मौन थी, सुप्त थी।
अपने आपको लपेटे थी।
चेतन ने उसे गाड़ा था यहाँ,
सँभाल न पा रहा था, अपने यहाँ।
उस दिन किसी ने,
अनजाने में
उसे छू लिया,
तो वह कराह उठी,
कुलबुला उठी,
मृत व्यथा
फिर जीवित हो गयी थी।
चेतन ने भी
उसके जी उठने पर
कुछ अश्रु-बूँदें
बहायी थीं।
- गीता मल्होत्रा
Geeta Malhotra
Email: [email protected]
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 व्यथा जी उठी
 होली की शाम
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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